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तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम्॥
- ऋग्वेद (1.7.7)
(न) नहीं मैं (ये) जो (वज्रिणः) अनन्त पराक्रमवान् (इन्द्रस्य) सब दुःखों के विनाश करनेहारे (अस्य) इस परमेश्वर के (तुज्जेतुज्जे) पदार्थ-पदार्थ के देने में (उत्तरे) सिद्धान्त से निश्चित किये हुए (स्तोमाः) स्तुतियों के समूह हैं, उनसे भी (अस्य) परमेश्वर की (सुष्टुतिम्) शोभायमान स्तुति का पार मैं जीव (न) नहीं (विन्धे) पा सकता हूँ॥७॥
ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के सुख के लिये इन पदार्थों में अपनी शक्ति से जितने दृष्टान्त वा उनमें जिस प्रकार की रचना और अलग-अलग उनके गुण तथा उनसे उपकार लेने के लिये रक्खे हैं, उन सबके जानने को मैं अल्पबुद्धि पुरुष होने से समर्थ कभी नहीं हो सकता और न कोई मनुष्य ईश्वर के गुणों की समाप्ति जानने को समर्थ है, क्योंकि जगदीश्वर अनन्त गुण और अनन्त सामर्थ्यवाला है, परन्तु मनुष्य उन पदार्थों से जितना उपकार लेने को समर्थ हों, उतना सब प्रकार से लेना चाहिये॥७॥
(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
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हमारी website: www.agnidhwaj.in
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम्॥
- ऋग्वेद (1.7.7)
(न) नहीं मैं (ये) जो (वज्रिणः) अनन्त पराक्रमवान् (इन्द्रस्य) सब दुःखों के विनाश करनेहारे (अस्य) इस परमेश्वर के (तुज्जेतुज्जे) पदार्थ-पदार्थ के देने में (उत्तरे) सिद्धान्त से निश्चित किये हुए (स्तोमाः) स्तुतियों के समूह हैं, उनसे भी (अस्य) परमेश्वर की (सुष्टुतिम्) शोभायमान स्तुति का पार मैं जीव (न) नहीं (विन्धे) पा सकता हूँ॥७॥
ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के सुख के लिये इन पदार्थों में अपनी शक्ति से जितने दृष्टान्त वा उनमें जिस प्रकार की रचना और अलग-अलग उनके गुण तथा उनसे उपकार लेने के लिये रक्खे हैं, उन सबके जानने को मैं अल्पबुद्धि पुरुष होने से समर्थ कभी नहीं हो सकता और न कोई मनुष्य ईश्वर के गुणों की समाप्ति जानने को समर्थ है, क्योंकि जगदीश्वर अनन्त गुण और अनन्त सामर्थ्यवाला है, परन्तु मनुष्य उन पदार्थों से जितना उपकार लेने को समर्थ हों, उतना सब प्रकार से लेना चाहिये॥७॥
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