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ऋग्वेद मण्डल 1. सूक्त 14. मंत्र 2


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आ त्वा॒ कण्वा॑ अहूषत गृ॒णन्ति॑ विप्र ते॒ धियः॑। दे॒वेभि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥ - ऋग्वेद 1.14.2


पदार्थ -

हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जैसे (कण्वाः) मेधावी विद्वान् लोग (त्वा) आपका (गृणन्ति) पूजन तथा (आहूषत) प्रार्थना करते हैं, वैसे ही हम लोग भी आपका पूजन और प्रार्थना करें। हे (विप्र) मेधाविन् विद्वन् ! जैसे (ते) तेरी (धियः) बुद्धि जिस ईश्वर के (गृणन्ति) गुणों का कथन और प्रार्थना करती हैं, वैसे हम सब लोग परस्पर मिलकर उसी की उपासना करते रहें। हे मङ्गलमय परमात्मन् ! आप कृपा करके (देवेभिः) उत्तम गुणों के प्रकाश और भोगों के देने के लिये हम लोगों को (आगहि) अच्छी प्रकार प्राप्त हूजिये॥१॥२॥हे (विप्र) मेधावी विद्वान् मनुष्य ! जैसे (कण्वाः) अन्य विद्वान् लोग (अग्ने) अग्नि के (गृणन्ति) गुणप्रकाश और (अहूषत) शिल्पविद्या के लिये युक्त करते हैं, वैसे तुम भी करो। जैसे (अग्ने) यह अग्नि (देवेभिः) दिव्यगुणों के साथ (आगहि) अच्छी प्रकार अपने गुणों को विदित करता है और जिस अग्नि के (ते) तेरी (धियः) बुद्धि (गृणन्ति) गुणों का कथन तथा (अहूषत) अधिक से अधिक मानती हैं, उससे तुम बहुत से कार्य्यों को सिद्ध करो॥२॥



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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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