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यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभ॑म्। ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे॥ - ऋग्वेद (1.15.6)
(युवम्) ये (धृतव्रतौ) बलों को धारण करनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और अपान (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (दूडभम्) जो कि शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य (दक्षम्) बल तथा (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥६॥
जो सबका मित्र बाहर आनेवाला प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाला उदान है, इन्हीं से प्राणी ऋतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं, जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥६॥
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हमारी website: www.agnidhwaj.in
(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभ॑म्। ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे॥ - ऋग्वेद (1.15.6)
(युवम्) ये (धृतव्रतौ) बलों को धारण करनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और अपान (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (दूडभम्) जो कि शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य (दक्षम्) बल तथा (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥६॥
जो सबका मित्र बाहर आनेवाला प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाला उदान है, इन्हीं से प्राणी ऋतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं, जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥६॥
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