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द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत। ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत॥ - ऋग्वेद (1.15.9)
हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला विद्वान् मनुष्य यज्ञों में सोम आदि ओषधियों के रस को (पिपीषति) पीने की इच्छा करता है, वैसे ही तुम भी उन यज्ञों को (नेष्ट्रात्) विज्ञान से (जुहोत) देने-लेने का व्यवहार करो तथा उन यज्ञों को विधि के साथ सिद्ध करके (ऋतुभिः) ऋतु-ऋतु के संयोग से सुखों के साथ (प्रतिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और उनकी विद्या को सदा (इष्यत) जानो॥९॥
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ऋतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म्म करना चाहिये, तथा जिस ऋतु में जो देश स्थिति करने वा जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति वा जाना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्रधारणादि व्यवहार करके सब व्यवहार में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥९॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
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द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत। ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत॥ - ऋग्वेद (1.15.9)
हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला विद्वान् मनुष्य यज्ञों में सोम आदि ओषधियों के रस को (पिपीषति) पीने की इच्छा करता है, वैसे ही तुम भी उन यज्ञों को (नेष्ट्रात्) विज्ञान से (जुहोत) देने-लेने का व्यवहार करो तथा उन यज्ञों को विधि के साथ सिद्ध करके (ऋतुभिः) ऋतु-ऋतु के संयोग से सुखों के साथ (प्रतिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और उनकी विद्या को सदा (इष्यत) जानो॥९॥
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ऋतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म्म करना चाहिये, तथा जिस ऋतु में जो देश स्थिति करने वा जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति वा जाना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्रधारणादि व्यवहार करके सब व्यवहार में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥९॥
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