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ऋग्वेद - मण्डल 1. सूक्त 18. मंत्र 1


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सो॒मानं॒ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते। क॒क्षीव॑न्तं॒ य औ॑शि॒जः॥ - ऋग्वेद (1.18.1)


पदार्थ -

(ब्रह्मणस्पते) वेद के स्वामी ईश्वर ! (यः) जो मैं (औशिजः) विद्या के प्रकाश में संसार को विदित होनेवाला और विद्वानों के पुत्र के समान हूँ, उस मुझको (सोमानम्) ऐश्वर्य्य सिद्ध करनेवाले यज्ञ का कर्त्ता (स्वरणम्) शब्द अर्थ के सम्बन्ध का उपदेशक और (कक्षीवन्तम्) कक्षा अर्थात् हाथ वा अङ्गुलियों की क्रियाओं में होनेवाली प्रशंसनीय शिल्पविद्या का कृपा से सम्पादन करनेवाला (कृणुहि) कीजिये॥१॥


भावार्थ -

जो कोई विद्या के प्रकाश में प्रसिद्ध मनुष्य है, वही पढ़ानेवाला और सम्पूर्ण शिल्पविद्या के प्रसिद्ध करने योग्य है। क्योंकि ईश्वर भी ऐसे ही मनुष्य को अपने अनुग्रह से चाहता है। इस मन्त्र का अर्थ सायणाचार्य्य ने कल्पित पुराण ग्रन्थ भ्रान्ति से कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥१॥


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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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