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ऋग्वेद - मण्डल 1. सूक्त 18. मंत्र 6


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सद॑स॒स्पति॒मद्भु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य॑म्। स॒निं मे॒धाम॑यासिषम्॥ - ऋग्वेद (1.18.6)


पदार्थ -

मैं (इन्द्रस्य) जो सब प्राणियों को ऐश्वर्य्य देने (काम्यम्) उत्तम (सनिम्) पाप-पुण्य कर्मों के यथायोग्य फल देने और (प्रियम्) प्राणियों को प्रसन्न करानेवाले (अद्भुतम्) आश्चर्य्यमय गुण और स्वभाव स्वरूप (सदसस्पतिम्) और जिसमें विद्वान् धार्मिक न्याय करनेवाले स्थित हों, उस सभा के स्वामी परमेश्वर की उपासना और सब उत्तम गुण स्वभाव परोपकारी सभापति को प्राप्त होके (मेधाम्) उत्तम ज्ञान को धारण करनेवाली बुद्धि को (अयासिषम्) प्राप्त होऊँ॥६॥


भावार्थ -

जो मनुष्य सर्वशक्तिमान् सबके अधिष्ठाता और सब आनन्द के देनेवाले परमेश्वर की उपासना करते और उत्कृष्ट न्यायाधीश को प्राप्त होते हैं, वे ही सब शास्त्रों के बोध से प्रसिद्ध क्रियाओं से युक्त बुद्धियों को प्राप्त और पुरुषार्थी होकर विद्वान् होते हैं॥६॥


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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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