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बन सूत अनादर सहता है,कौरव के दल में रहता है,शर-चाप उठाये आठ प्रहर,पांडव से लड़ने हो तत्पर"माँ का सनेह पाया न कभीसामने सत्य आया न कभी,किस्मत के फेरे में पड़ कर,पा प्रेम बसा दुश्मन के घरनिज बंधु मानता है पर को,कहता है शत्रु सहोदर को"पर कौन दोष इसमें तेरा?अब कहा मान इतना मेराचल होकर संग अभी मेरे,है जहाँ पाँच भ्राता तेरेबिछुड़े भाई मिल जायेंगे,हम मिलकर मोद मनाएंगे"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठमस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,तेरा अभिषेक करेंगे हमआरती समोद उतारेंगे,सब मिलकर पाँव पखारेंगे"पद-त्राण भीम पहनायेगा,धर्माधिप चंवर डुलायेगापहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,सहदेव-नकुल अनुचर होंगेभोजन उत्तरा बनायेगी,पांचाली पान खिलायेगी"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !आनंद-चमत्कृत जग होगासब लोग तुझे पहचानेंगे,असली स्वरूप में जानेंगेखोयी मणि को जब पायेगी,कुन्ती फूली न समायेगी"रण अनायास रुक जायेगा,कुरुराज स्वयं झुक जायेगासंसार बड़े सुख में होगा,कोई न कहीं दुःख में होगासब गीत खुशी के गायेंगे,तेरा सौभाग्य मनाएंगे"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,साम्राज्य समर्पण करता हूँयश मुकुट मान सिंहासन ले,बस एक भीख मुझको दे देकौरव को तज रण रोक सखे,भू का हर भावी शोक सखेसुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,फिर कहा "बड़ी यह माया है,जो कुछ आपने बताया हैदिनमणि से सुनकर वही कथामैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,उन्मन यह सोचा करता हूँ,कैसी होगी वह माँ कराल,निज तन से जो शिशु को निकालधाराओं में धर आती है,अथवा जीवित दफनाती है?"सेवती मास दस तक जिसको,पालती उदर में रख जिसको,जीवन का अंश खिलाती है,अन्तर का रुधिर पिलाती हैआती फिर उसको फ़ेंक कहीं,नागिन होगी वह नारि नहीं"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,इस पर न अधिक कुछ भी कहियेसुनना न चाहते तनिक श्रवण,जिस माँ ने मेरा किया जननवह नहीं नारि कुल्पाली थी,सर्पिणी परम विकराली थी"पत्थर समान उसका हिय था,सुत से समाज बढ़ कर प्रिय थागोदी में आग लगा कर के,मेरा कुल-वंश छिपा कर केदुश्मन का उसने काम किया,माताओं को बदनाम किया"माँ का पय भी न पीया मैंने,उलटे अभिशाप लिया मैंनेवह तो यशस्विनी बनी रही,सबकी भौ मुझ पर तनी रहीकन्या वह रही अपरिणीता,जो कुछ बीता, मुझ पर बीता"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,राजाओं के सम्मुख मलीन,जब रोज अनादर पाता था,कह 'शूद्र' पुकारा जाता थापत्थर की छाती फटी नहीं,कुन्ती तब भी तो कटी नहीं"मैं सूत-वंश में पलता था,अपमान अनल में जलता था,सब देख रही थी दृश्य पृथा,माँ की ममता पर हुई वृथाछिप कर भी तो सुधि ले न सकीछाया अंचल की दे न सकी"पा पाँच तनय फूली फूली,दिन-रात बड़े सुख में भूलीकुन्ती गौरव में चूर रही,मुझ पतित पुत्र से दूर रहीक्या हुआ की अब अकुलाती है?किस कारण मुझे बुलाती है?"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,सुत के धन धाम गंवाने परया महानाश के छाने पर,अथवा मन के घबराने परनारियाँ सदय हो जाती हैंबिछुड़ों को गले लगाती हैं?"कुन्ती जिस भय से भरी रही,तज मुझे दूर हट खड़ी रहीवह पाप अभी भी है मुझमें,वह शाप अभी भी है मुझमेंक्या हुआ की वह डर जायेगा?कुन्ती को काट न खायेगा?"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?कुन्ती का क्या चाहता हृदय,मेरा सुख या पांडव की जय?यह अभिनन्दन नूतन क्या है?केशव! यह परिवर्तन क्या है?"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,सब लोग हुए हित के कामीपर ऐसा भी था एक समय,जब यह समाज निष्ठुर निर्दयकिंचित न स्नेह दर्शाता था,विष-व्यंग सदा बरसाता था"उस समय सुअंक लगा कर के,अंचल के तले छिपा कर केचुम्बन से कौन मुझे भर कर,ताड़ना-ताप लेती थी हर?राधा को छोड़ भजूं किसको,जननी है वही, तजूं किसको?"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,सच है की झूठ मन में गुनियेधूलों में मैं था पड़ा हुआ,किसका सनेह पा बड़ा हुआ?किसने मुझको सम्मान दिया,नृपता दे महिमावान किया?"अपना विकास अवरुद्ध देख,सारे समाज को क्रुद्ध देखभीतर जब टूट चुका था मन,आ गया अचानक दुर्योधननिश्छल पवित्र अनुराग लिए,मेरा समस्त सौभाग्य लिए"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,राधा ने माँ का कर्म कियापर कहते जिसे असल जीवन,देने आया वह दुर्योधनवह नहीं भिन्न माता से हैबढ़ कर सोदर भ्राता से है"राजा रंक से बना कर के,यश, मान, मुकुट पहना कर केबांहों में मुझे उठा कर के,सामने जगत के ला करकेकरतब क्या क्या न किया उसनेमुझको नव-जन्म दिया उसने"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,जानते सत्य यह सूर्य-सोमतन मन धन दुर्योधन का है,यह जीवन दुर्योधन का हैसुर पुर से भी मुख मोडूँगा,केशव ! मैं उसे न छोडूंगाहिंदी के ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी रचना ‘रश्मिरथी’
बन सूत अनादर सहता है,कौरव के दल में रहता है,शर-चाप उठाये आठ प्रहर,पांडव से लड़ने हो तत्पर"माँ का सनेह पाया न कभीसामने सत्य आया न कभी,किस्मत के फेरे में पड़ कर,पा प्रेम बसा दुश्मन के घरनिज बंधु मानता है पर को,कहता है शत्रु सहोदर को"पर कौन दोष इसमें तेरा?अब कहा मान इतना मेराचल होकर संग अभी मेरे,है जहाँ पाँच भ्राता तेरेबिछुड़े भाई मिल जायेंगे,हम मिलकर मोद मनाएंगे"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठमस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,तेरा अभिषेक करेंगे हमआरती समोद उतारेंगे,सब मिलकर पाँव पखारेंगे"पद-त्राण भीम पहनायेगा,धर्माधिप चंवर डुलायेगापहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,सहदेव-नकुल अनुचर होंगेभोजन उत्तरा बनायेगी,पांचाली पान खिलायेगी"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !आनंद-चमत्कृत जग होगासब लोग तुझे पहचानेंगे,असली स्वरूप में जानेंगेखोयी मणि को जब पायेगी,कुन्ती फूली न समायेगी"रण अनायास रुक जायेगा,कुरुराज स्वयं झुक जायेगासंसार बड़े सुख में होगा,कोई न कहीं दुःख में होगासब गीत खुशी के गायेंगे,तेरा सौभाग्य मनाएंगे"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,साम्राज्य समर्पण करता हूँयश मुकुट मान सिंहासन ले,बस एक भीख मुझको दे देकौरव को तज रण रोक सखे,भू का हर भावी शोक सखेसुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,फिर कहा "बड़ी यह माया है,जो कुछ आपने बताया हैदिनमणि से सुनकर वही कथामैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,उन्मन यह सोचा करता हूँ,कैसी होगी वह माँ कराल,निज तन से जो शिशु को निकालधाराओं में धर आती है,अथवा जीवित दफनाती है?"सेवती मास दस तक जिसको,पालती उदर में रख जिसको,जीवन का अंश खिलाती है,अन्तर का रुधिर पिलाती हैआती फिर उसको फ़ेंक कहीं,नागिन होगी वह नारि नहीं"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,इस पर न अधिक कुछ भी कहियेसुनना न चाहते तनिक श्रवण,जिस माँ ने मेरा किया जननवह नहीं नारि कुल्पाली थी,सर्पिणी परम विकराली थी"पत्थर समान उसका हिय था,सुत से समाज बढ़ कर प्रिय थागोदी में आग लगा कर के,मेरा कुल-वंश छिपा कर केदुश्मन का उसने काम किया,माताओं को बदनाम किया"माँ का पय भी न पीया मैंने,उलटे अभिशाप लिया मैंनेवह तो यशस्विनी बनी रही,सबकी भौ मुझ पर तनी रहीकन्या वह रही अपरिणीता,जो कुछ बीता, मुझ पर बीता"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,राजाओं के सम्मुख मलीन,जब रोज अनादर पाता था,कह 'शूद्र' पुकारा जाता थापत्थर की छाती फटी नहीं,कुन्ती तब भी तो कटी नहीं"मैं सूत-वंश में पलता था,अपमान अनल में जलता था,सब देख रही थी दृश्य पृथा,माँ की ममता पर हुई वृथाछिप कर भी तो सुधि ले न सकीछाया अंचल की दे न सकी"पा पाँच तनय फूली फूली,दिन-रात बड़े सुख में भूलीकुन्ती गौरव में चूर रही,मुझ पतित पुत्र से दूर रहीक्या हुआ की अब अकुलाती है?किस कारण मुझे बुलाती है?"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,सुत के धन धाम गंवाने परया महानाश के छाने पर,अथवा मन के घबराने परनारियाँ सदय हो जाती हैंबिछुड़ों को गले लगाती हैं?"कुन्ती जिस भय से भरी रही,तज मुझे दूर हट खड़ी रहीवह पाप अभी भी है मुझमें,वह शाप अभी भी है मुझमेंक्या हुआ की वह डर जायेगा?कुन्ती को काट न खायेगा?"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?कुन्ती का क्या चाहता हृदय,मेरा सुख या पांडव की जय?यह अभिनन्दन नूतन क्या है?केशव! यह परिवर्तन क्या है?"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,सब लोग हुए हित के कामीपर ऐसा भी था एक समय,जब यह समाज निष्ठुर निर्दयकिंचित न स्नेह दर्शाता था,विष-व्यंग सदा बरसाता था"उस समय सुअंक लगा कर के,अंचल के तले छिपा कर केचुम्बन से कौन मुझे भर कर,ताड़ना-ताप लेती थी हर?राधा को छोड़ भजूं किसको,जननी है वही, तजूं किसको?"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,सच है की झूठ मन में गुनियेधूलों में मैं था पड़ा हुआ,किसका सनेह पा बड़ा हुआ?किसने मुझको सम्मान दिया,नृपता दे महिमावान किया?"अपना विकास अवरुद्ध देख,सारे समाज को क्रुद्ध देखभीतर जब टूट चुका था मन,आ गया अचानक दुर्योधननिश्छल पवित्र अनुराग लिए,मेरा समस्त सौभाग्य लिए"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,राधा ने माँ का कर्म कियापर कहते जिसे असल जीवन,देने आया वह दुर्योधनवह नहीं भिन्न माता से हैबढ़ कर सोदर भ्राता से है"राजा रंक से बना कर के,यश, मान, मुकुट पहना कर केबांहों में मुझे उठा कर के,सामने जगत के ला करकेकरतब क्या क्या न किया उसनेमुझको नव-जन्म दिया उसने"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,जानते सत्य यह सूर्य-सोमतन मन धन दुर्योधन का है,यह जीवन दुर्योधन का हैसुर पुर से भी मुख मोडूँगा,केशव ! मैं उसे न छोडूंगाहिंदी के ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी रचना ‘रश्मिरथी’