सच कहना,
आज सुबह जब पहली आँख खुली थी,
किसे देखा था,
कल रात जो आँख लगते लगते
किसे देखा था,
सच कहना,
सच कहना,
आज अखबार के पन्ने,
पलटते-पलटते,
किस शब्द पर,
तुम्हारी आँखे रुक जाती है,
जिनके आगे,
कुछ यादें,
पन्नो सी पलट जाती है,
सच कहना,
सच कहना,
आईने के सामने,
कुछ तो डर लगता होगा,
कभी खुद को,
देखा था,
मेरी आँखों से,
वो तुम्हारी खुद की छाया,
चुभती तोह होगी न
सच कहना।
सच कहना,
की शाम को कभी फुरसत मे,
डूबते सूरज को,
एक टक देखते हुए,
यही सोच रही थी न,
की दूर क्षितिज से,
मेरी आँखे,
तुम्हे अब भी निहार रही है,
है ना,
सच कहना।