श्रीमद भागवद पुराण

श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ५] (भवावटी की प्रकृति अर्थ वर्णन)


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श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ५]
(भवावटी की प्रकृति अर्थ वर्णन)
दो०-रूपक धरि कहि जड़ भरत, राजा दियौ समझाय।
भिन्न भिन्न कर सब कहयौ, चौदहवें अध्याय ।।
श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब जड़ भरत ने राजा रहूगण को इस प्रकार एक रूपक सुनाकर ज्ञान दिया तो, हाथ जोड़कर राजा रहूगण विनय बचन कह जड़ भरत से बोला-
--महाराज ! आपके इस कथन को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह बंजारा समूह इतना बलिष्ठ होकर भी जिसके पास धन आदि सब कुछ है फिर चोरों से लुटता है और सबके सब मार्ग भूल बन में भटकते फिरते हैं, तथा एक-एक कर के कुये में गिरकर प्राणों की रक्षा का ध्यान न करके उस एक बूँद मधु का आनन्द पाकर मृत्यु को भूल जाता है। सो यह प्रसंग आप मुझे पूर्णरूप से भिन्न-भिन्न करके समझाइये । वह बंजारा अपने को बचाने के लिये डाली को पकड़कर ऊपर क्यों न चढ़ आया और उस मधु का लोभ क्यों न त्यागा?
रहूगण के यह बचन न जड़ भरत ने कहा- हे राजन ! ऐसी ही दशा जैसी कि उस बंजारे के समूह की है, तुम्हारी और अन्य सभी संसारी मनुष्यों की भी है।
सब मनुष्य हर प्रकार के उद्यम करने पर भी संतोष नहीं करता और अधिक से अधिक लोभ बढ़ता जाता है, और परिणाम यह है, कि वह इस संसार चक्र से छूटने के लिये दो घड़ी का समय निकाल कर अपने पैदा करने वाले परमात्मा का स्मरण तक भी नहीं करता है। जब कभी कोई उसे उपदेश करता है कि भाई ! तुम कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन तो कर लिया करो। तब वह तपाक से यही कहता है कि क्या करें भाई काम काज से इतना समय ही नहीं मिलता हैं कि भगवान का दो घड़ी भर भजन करे।
॥ सो हे राजा रहूगण ! मैंने तुम्हें जो रूपक सुनाया है वह इसी प्रकार जानो
कि यह समस्त जीव समूह बंजारा समूह ही जानो जोकि धनोपार्जन करने के लिये संसार रूप मार्ग में चल पड़ा है। तब वह मार्ग में वन में जाके फँस जाता है अर्थात, वह अपने शरीर के द्वारा रचे हुये कमों का फल भोगने में व्यस्त हो जाता है। फिर भी वह ऐसे उद्योग करता रहता है कि इस झंझट में पड़ कर लाभ करे परन्तु हानि करके और झंझटों में फंसता रहता है ।
तब भी वह उन दुखों से छुटकारा पाने के लिये ईश्वर को स्मरण नहीं करता है। अर्थात भक्ति मार्ग पर नहीं चलता है। वह सब इसलिये नहीं कर पाता है कि हमने कहा है कि उन बन्जारों को लूटने के लिये छः बलवान चोर पीछे लग जाते हैं। अर्थात यों समझिये कि उस जीव समूह को लूटने वाली वे छः इन्द्रियाँ हैं जो चोर का काम करने वाली हैं। जो संसार मार्ग में भेड़िये आदि कहे हैं, सो पुत्रादि कुटुम्बीजन हैं, जिनके द्वारा सब कुछ हरण होने पर भी मनुष्य अपना मोह नहीं छोड़ता है।
हमने जो डाँस मच्छर आदि बन के बीच दुख देने वाले कहे हैं सो वह मनुष्य साधु-जनों का संग छोड़ कर नीच पुरुषों के साथ रहकर दुष्ट कर्म करते हैं।
सो इन सब उपद्रवों से युक्त हुआ मनुष्य अनेक दुखों को पाता हुआ अत्यन्त खेद को पाता है। धनरूपी प्राण बाहर ही हैं जैसे वहाँ किसी समय बबूल आने से आँखों में धूल भर जाने से अन्धे तुल्य हो जाता है। इसी प्रकार जब स्त्री को देख कर कुछ मर्यादा नहीं सूझती और सोचता है कि यह विषय भोग मिथ्या है और फिर भूलकर मृग तृष्णा के समान उन्हीं विषयों के पीछे दौड़ता है। हमने कहा कि उल्लू आदि पक्षियों के भयावने शब्दों को सुन कर डरता है, सो यह इस प्रकार जानो कि अपने कर्मों के प्रति फल को अर्थात शत्रु अथवा राज दूतों आदि से क्रूर बचनों को मुख सामने हो या पीठ पीछे सुनकर दुखी होता हैं । कभी अनेक प्रकार के रोगो में पड़, कर भयभीत हो रोगों को दूर करने का प्रयत्न करता है, और दूर न होने पर दुखी होकर बैठा रहता है ।
इस प्रकार इस जगत रूपी मार्ग में नाना प्रकार के क्लेशों में पड़कर मरे को छोड़ कर और नये पैदा होने वाले को साथ लेकर फिर इसी संसार रूपी मार्ग पर चलने लगता है । सोच करता है, और मोह करता है, डरता है, विवाद करता है, प्रसन्न होता है, चिल्लाता है, गान करता है कमर कसता है, परन्तु साधु पुरुष के बिना दूसरा कोई मनुष्य आज तक भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है ।
कारण कि योग का आश्रय नहीं लेता है, जिसका अभ्यास योग शास्त्र के जानने वाले ही जानते हैं । जो सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने वाले हैं वे भी ममता के कारण अन्त में इसी पृथ्वी में देह को मिलाकर फिर जन्म ले संसार चक्र में चक्कर खाते हैं । जब कि कभी-कभी कोई-कोई जीव कर्म रूप बेल को पकड़ कर कुछ समय को बचा रहता है, परन्तु फिर उस बेल के टूटते ही संसार मार्ग में चक्कर लगाने लग जाता है । हे राजन! जो मैंने यह कहा कि एक-एक कर सभी बन्जारे उस अन्ध कूप में पड़ते हैं, और लता को पकड़कर लटकते रहते हैं । जब कि कूप में सर्प बैठा रहता है, तब भी वह एक बूंद मधु के फेर में पड़ जाता है, सो यह जानो कि कूए में जो सर्प कहा है वह काल हैं और जिसको पकड़ क
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श्रीमद भागवद पुराणBy Shrimad Bhagwad Mahapuran