ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमुढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः || ३२ ||
ये– जो; तु– किन्तु; एतत्– इस; अभ्यसूयन्तः– ईर्ष्यावश; न– नहीं; अनुतिष्ठन्ति– नियमित रूप से सम्पन्न करते हैं; मे– मेरा; मतम्– आदेश; सर्व-ज्ञान – सभी प्रकार के ज्ञान में; विमूढान्– पूर्णतया दिग्भ्रमित; तान्– उन्हें; विद्धि– ठीक से जानो; नष्टान्– नष्ट हुए; अचेतसः– कृष्णभावनामृत रहित |
किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की अपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए |
तात्पर्य : यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है | जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा का उल्लंघन के लिए दण्ड होता है, उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है | अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्यहृदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म, परमात्मा एवं श्री भगवान् के प्रति अनभिज्ञ रहता है | अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती |