यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || २३ ||
यदि– यदि; हि– निश्चय ही; अहम्– मैं; न– नहीं; वर्तेयम्– इस प्रकार व्यस्त रहूँ; जातु– कभी; कर्मणि– नियत कर्मों के सम्पादन में; अतन्द्रितः– सावधानी के साथ; मम– मेरा; वर्त्म– पथ; अनुवर्तन्ते– अनुगमन करेंगे; मनुष्याः– सारे मनुष्य; पार्थ– हे पृथापुत्र; सर्वशः– सभी प्रकार से |
क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे |
तात्पर्यः आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के लिए एवं सामाजिक शान्ति में संतुलन बनाये रखने के लिए कुछ परम्परागत कुलाचार हैं जो प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के लिए होते हैं | ऐसे विधि-विधान केवल बद्धजीवों के लिए हैं, भगवान् कृष्ण के लिए नहीं, लेकिन क्योंकि वे धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे, अतः उन्होंने निर्दिष्ट नियमों का पालन किया | अन्यथा, सामान्य व्यक्ति भी उन्हीं के पदचिन्हों का अनुसरण करते क्योंकि कृष्ण परम प्रमाण हैं | श्रीमद्भागवत् से यह ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण अपने घर में तथा बहार गृहोस्थित धर्म का आचरण करते रहे |