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तीर्थाटन – धर्म, पर्यावरण और भविष्यएक यात्रा भीतर की…भारतवर्ष में तीर्थाटन केवल पर्यटन नहीं है — यह आत्मा की यात्रा है। ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ ही होता है — ‘‘वह स्थान जो पार कराए’’। कोई नदी, कोई घाट, कोई पर्वत — जो मानव को संसार के शोर से निकाल कर भीतर की शांति में ले जाए। यही कारण है कि भारत में सैकड़ों तीर्थ हैं — बद्रीनाथ से रामेश्वरम्, पुरी से द्वारका तक। हर तीर्थ अपने में कोई कहानी, कोई पुरानी आस्था, कोई प्रकृति के प्रति श्रद्धा समेटे हुए है।हमारे जीवन में यात्रा का एक विशेष महत्व रहा है। लेकिन हर यात्रा तीर्थ नहीं होती। तीर्थ वह होता है जो सिर्फ शरीर को नहीं, आत्मा को भी एक पवित्र गंतव्य तक ले जाए। ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ है – वह स्थान जो पार लगाता है, जहाँ आकर जीवन की कठिनाइयाँ कुछ समय के लिए उतरती हैं और मन एक नए संकल्प के साथ लौटता है।भारत की संस्कृति को अगर तीर्थों की संस्कृति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उत्तर में केदारनाथ-बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में पुरी जगन्नाथ और पश्चिम में द्वारका – ये केवल चार धाम ही नहीं हैं, बल्कि भारतीय चेतना के चार कोने हैं। इनके बीच असंख्य तीर्थ – नदियाँ, झीलें, पहाड़, वन, गुफाएँ, मंदिर, मठ, आश्रम और दरगाहें – हर आस्था को एक पवित्र राह देते हैं।हमारे पूर्वजों ने तीर्थ केवल ईश्वर से प्रार्थना करने का स्थान नहीं बनाए थे। तीर्थ सामाजिक मेलजोल का माध्यम भी थे। यही वजह है कि तीर्थ यात्रा के साथ गाँव-गाँव से लोग साथ चलते थे, रास्ते में धर्मशालाएँ बनती थीं, कथा-सत्संग होते थे, व्यापार भी चलता था और विचारों का आदान-प्रदान भी होता था।आज जब विज्ञान ने यात्रा को मिनटों में संभव कर दिया है, हवाई जहाज़ और ऑनलाइन बुकिंग ने हजारों किलोमीटर की दूरी को नापा जा सकता है, तब भी तीर्थ का महत्व कम नहीं हुआ। बल्कि तीर्थाटन अब पर्यटन से भी जुड़ गया है। पर सवाल है – क्या तीर्थ केवल घूमने की जगह है? क्या हम तीर्थ को मॉल या थीम पार्क समझ बैठे हैं? क्या हम तीर्थ के पीछे की आध्यात्मिक और सामाजिक शक्ति को भूलते जा रहे हैं?आज के इस शास्त्रार्थ लेख में हम यही देखने की कोशिश करेंगे –
और सबसे जरूरी सवाल – क्या आज भी तीर्थ हमारे भीतर कुछ बदलते हैं?
तीर्थाटन – धर्म, पर्यावरण और भविष्यएक यात्रा भीतर की…भारतवर्ष में तीर्थाटन केवल पर्यटन नहीं है — यह आत्मा की यात्रा है। ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ ही होता है — ‘‘वह स्थान जो पार कराए’’। कोई नदी, कोई घाट, कोई पर्वत — जो मानव को संसार के शोर से निकाल कर भीतर की शांति में ले जाए। यही कारण है कि भारत में सैकड़ों तीर्थ हैं — बद्रीनाथ से रामेश्वरम्, पुरी से द्वारका तक। हर तीर्थ अपने में कोई कहानी, कोई पुरानी आस्था, कोई प्रकृति के प्रति श्रद्धा समेटे हुए है।हमारे जीवन में यात्रा का एक विशेष महत्व रहा है। लेकिन हर यात्रा तीर्थ नहीं होती। तीर्थ वह होता है जो सिर्फ शरीर को नहीं, आत्मा को भी एक पवित्र गंतव्य तक ले जाए। ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ है – वह स्थान जो पार लगाता है, जहाँ आकर जीवन की कठिनाइयाँ कुछ समय के लिए उतरती हैं और मन एक नए संकल्प के साथ लौटता है।भारत की संस्कृति को अगर तीर्थों की संस्कृति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उत्तर में केदारनाथ-बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में पुरी जगन्नाथ और पश्चिम में द्वारका – ये केवल चार धाम ही नहीं हैं, बल्कि भारतीय चेतना के चार कोने हैं। इनके बीच असंख्य तीर्थ – नदियाँ, झीलें, पहाड़, वन, गुफाएँ, मंदिर, मठ, आश्रम और दरगाहें – हर आस्था को एक पवित्र राह देते हैं।हमारे पूर्वजों ने तीर्थ केवल ईश्वर से प्रार्थना करने का स्थान नहीं बनाए थे। तीर्थ सामाजिक मेलजोल का माध्यम भी थे। यही वजह है कि तीर्थ यात्रा के साथ गाँव-गाँव से लोग साथ चलते थे, रास्ते में धर्मशालाएँ बनती थीं, कथा-सत्संग होते थे, व्यापार भी चलता था और विचारों का आदान-प्रदान भी होता था।आज जब विज्ञान ने यात्रा को मिनटों में संभव कर दिया है, हवाई जहाज़ और ऑनलाइन बुकिंग ने हजारों किलोमीटर की दूरी को नापा जा सकता है, तब भी तीर्थ का महत्व कम नहीं हुआ। बल्कि तीर्थाटन अब पर्यटन से भी जुड़ गया है। पर सवाल है – क्या तीर्थ केवल घूमने की जगह है? क्या हम तीर्थ को मॉल या थीम पार्क समझ बैठे हैं? क्या हम तीर्थ के पीछे की आध्यात्मिक और सामाजिक शक्ति को भूलते जा रहे हैं?आज के इस शास्त्रार्थ लेख में हम यही देखने की कोशिश करेंगे –
और सबसे जरूरी सवाल – क्या आज भी तीर्थ हमारे भीतर कुछ बदलते हैं?