आपकी स्वाधीनता से किसी का रत्तीभर बुरा न हो
उन्नति के लिए आजादी सहायक है। मनुष्य के लिए जिस प्रकार सोचने और सोचकर प्रकट करने की स्वाधीनता होनी आवश्यक है उसी तरह उसे खाने पीने, पहनने, ओढने लेने-देने और विवाह आदि कर्मों की आजादी होनी चाहिए। उसकी स्वाधीनता से किसी का रत्तीभर बुरा न हो।
सब बातों की स्वाधीनता के मायने हैं मुक्ति की ओर बढ़ना और यही पुरुषार्थ है। उस काम में सहायता करना परम पुरुषार्थ है जिससे और लोग शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर बढ़ें। इस स्वाधीनता की स्फूर्ति में जिन सामाजिक नियमों के द्वारा बाधा पड़ती है वे अकल्याणकर हैं, बुरे हैं। इसलिए ऐसे नियमों को शीघ्र नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। व्यक्ति को बलवान बनने की कोशिश करनी चाहिए। कमजोर दिमाग कुछ भी नहीं कर सकता। सैकड़ों प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके, कमजोरियों को दबाकर, यदि तुम सत्य की सेवा कर सको तो सचमुच तमुमे एक ऐसा दिव्य तेज भर जाएगा कि उसके सामने,
तुम्हें जो कुछ असत्य जंचता है उसका उल्लेख करने की हिम्मत औरों को नहीं होगी। जिसकी सहायता से इच्छाशक्ति का वेग
और स्फूर्ति अपने वश में हो जाए और जो मनोरथ सफल हो सके वहीं शिक्षा है। मस्तिष्क में अनेक तरह का ज्ञान भर लेना, उससे कुछ काम न लेना और जन्म भर वाद विवाद करते रहने का नाम शिक्षा नहीं है। अच्छे आदर्श और अच्छे भावों को काम में लाकर लाभ उठाना चाहिए, जिससे वास्तविक मनुष्यत्व, चरित्र और जीवन बन सके। कुछ इम्तिहान पास करना अथवा धुंआधार व्याख्यान देने की शक्ति प्राप्त कर लेना शिक्षित हो जाना नहीं कहलाता। जिस विद्या के बल से जनता को जीवन संग्राम के लिए समर्थ नहीं किया जा सकता, जिसकी सहायता से मनुष्य का चरित्र बल परोपकार में तत्पर और सिंह का सा साहसी नहीं किया जा सकता, उसे शिक्षा नहीं कहा जा सकता। शिक्षा तो वही है जो मनुष्य को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है। भगवान ने कृष्णावतार में कहा है कि सभी प्रकार के दुखों कार कारण अविद्या है। निष्काम करने से चित्त शुद्ध होता है। जबकि कर्म वही है जिसके द्वारा आत्मभाव का विकास हो, और जिसके द्वारा अनात्मभाव का विकास हो वह अकर्म है।