* वाणी और मन का संवाद ।
* आत्मदेव का निर्णय - वाणी श्रेष्ठ है।
* घोषयुक्त वाणी की अपक्षा घोषरहित वाणी श्रेष्ठ है। क्योंकि उसे प्राणवायुके सहायता की अपेक्षा नहीं है।
* स्थावर होने के कारण मन श्रेष्ठ है और जंगम होने के कारण वाणी।
* वाक् प्राण के द्वारा शरीर में प्रकट होती है। तदुपरान्त प्राणसे अपान भावको प्राप्त होती है। तत्पश्चात् उदानस्वरूप होकर शरीर को छोड़कर आत्मा मन को उच्चारण करने को प्रेरित करता है। मन व्यानरूप से सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त कर लेती है। तदनन्तर समानवायु में प्रतिष्ठित होती है।
* पहले आत्मा मन को उच्चारण करने के लिये प्रेरित करता है। तदुपरान्त मन जठराग्नि को प्रज्वलित करता है। जठराग्नि के प्रज्वलित होने पर प्राणवायु अपानवायु से जा मिलता है। फिर वह वायु उदानवायु के प्रभाव से ऊपर उठकर मस्तक से टकराता है। फिर व्याववायु के प्रभावसे कण्ठ तालु इत्यादि स्थानों से होकर वेग से शब्द उत्पन्न करता हुआ वैखरी रूपसे मनुष्योंके कान में पहुंचता है।
* जब प्राणवायुका वेग निवृत्त हो जाता है तब वह पुनः समानभाव से चलने लगता है।
* सात होता - पांचों ज्ञानेन्द्रियां तथा मन और बुद्धि (ध्यातव्य- अनुगीता का सिद्धान्त पातञ्जलयोग से थोडा़ भिन्न है। पातञ्जल योग मन और बुद्धि को प्रायः एक ही मानकर चलता है)। यह सातों होता यद्यपि सूक्ष्म शरीर में निवास करते हैं किन्तु अलग- अलग रहते हैं, एक दूसरे को नहीं देखते अर्थात् एक दूसरे के गुण को नहीं जानते, केवल अपने-अपने गुण को जानते हैं। इनको इनके स्वभाव और कार्य से पहचाना जाता है। इनमेंसे कोई भी केवल अपना कार्य कर सकता है दूसरे का नहीं। नासिका केवल सूंघने का कार्य कर सकती है, वह देखना सुनना बोलना इत्यादि कार्य नहीं कर सकती । इसी प्रकार कान केवल सुनने का कार्य कर सकता है। वह सूंघना, स्वाद लेना, देखना इत्यादि कार्य नहीं कर सकता।
(नोट - अनुगीता में मन और बुद्धि को पांच ज्ञानेन्द्रियों से भिन्न कर्ता कह रहे हैं। किन्तु योग-वेदान्त का सामान्य सिद्धान्त यह है कि सभी इन्द्रियां मन से युक्त होकर ही कार्य करती हैं। मन सभी में सम्मिलित रहता है।)
* मन और इन्द्रियों का संवाद। आख्यायिका-