नारायण! महामारी के लम्बे प्रकोप को देखते हुये विगत वर्ष से पातञ्जल योगसूत्रको समसामयिक समझते हुये उसकी वेदान्तपरक व्याख्या कर रहे थे। जिन्होने भी नियमित सुना होगा उनको प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूपमें लाभ अवश्य हुआ होगा। अभी प्रकोप उग्र रूपमें है, सर्वत्र भय का वातावरण है, अतः वेदान्त श्रवण में सामान्यजन का मन न लगना स्वाभाविक है। अतः इस समय आयुर्वेद को अधिक प्रासंगिक समझते हुये उसके सर्वजनोपयोगी नियमों एवं सिद्धान्तों की चर्चा करेंगे। ध्यातव्य है कि आयुर्वेद हमारा विषय नहीं है। अतः रोगों एवं ओषधियों का विवरण नहीं देंगे। हमारी दृष्टि मूलभूत सिद्धान्तों और निवारक उपायों की ओर होगी और प्रज्ञापराध पर विशेष ध्यानाकर्षण होगा। योगशास्त्र के अष्टाङ्गयोग के प्रथम दो अङ्ग यम और नियम आयुर्वेद, वेदान्त , ज्योतिष, धर्मशास्त्र इत्यादि समस्त क्षेत्रों में समान रूप से उपयोगी हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता का वचन "युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।" भी समस्त क्षेत्रों में प्रयोज्य है। शरीर एक नगर है हम इसके निवासी, राजा तथा रक्षक हैं। इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। रक्षा के उपाय क्या हैं, यही आयुर्वेद में बताया गया है।