* युक्तियुक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि।अन्यत्तृणमिव त्याज्यमप्युक्तं पद्मजन्मना।।2.18.3।।युक्तिपूर्ण वचन बालकका भी हो तो ग्रहण कर लेना चाहिये और युक्तिहीन वचन ब्रह्माजी का ही क्यों न हो , उसको त्याग देना चाहिये। * योगवासिष्ठ अन्धविश्वास और आडम्बर का घोर खण्डन करता है। यह कुआं हमारे बाप दादा का बनाया हुआ है अतः इसीका जल पीयेंगे, यह सोचकर जो गंगाजल छोड़कर कूंये का जल पीता है, उसे कौन समझा सकता है? *वाणी क्रमशः अपना कार्य करती है , अकस्मात् नहीं। अतः निरन्तर दीर्घकाल तक शास्त्राभ्यास करना चाहिये।