मन का स्वरूप भाग 1. (नोट- धूप की प्रियता, तुषार, अन्धकार इत्यादि के वर्णनसे से ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय विश्वामित्रजी श्रीराम को मांगनेके लिये आये थे। वह शीत ऋतु के किसी मासका कृष्ण पक्ष था।) न बाह्ये नाऽपि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः। सर्वत्रैव स्थितं चैतद्विद्धि राम यथा नभः।। पूर्णं पूर्णे प्रसरति शान्तं शान्ते व्यवस्थितम्। व्योमन्येवोदितं व्योम ब्रह्मणि ब्रह्म तिष्ठति।। नदृश्यमस्ति सद्रूपं न द्रष्टा न च दर्शनम्। न शून्यं न जडं नो चिच्छान्तमेवेदमाततम्।।