उद्यम को छोड़कर दैव पर निर्भर रहने वाला आत्मशत्रु है। वह धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों का विनाश करता है। पुरुषार्थ से ही बृहस्पति देवताओं के गुरु हुये, पुरुषार्थसे ही शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु हुये, पुरुषार्थसे ही लोकों की रचना होती है। दैव से नहीं। विना प्रयत्नके तो सामने थाली में रखा हुआ भोजन भी मुखमें नहीं जाता। पुरुषार्थ के तीन अनिवार्य कारक हैं - शास्त्राभ्यास, गूरुपदेश और अपना परिश्रम।