Reflection of Brahman(supreme Self) in a microcosm(individual units of mind-intellect) is called Jiva;
and a reflection of the same supreme Self in the macrocosmic mind(Maya) is known as Ishwara.
It is this Ishwara that is the ‘tat’;
and jiva is the ‘tvam’ in
“Tat Tvam Asi” - ‘That Thou Art’.
THE SUBSTRATUM OF BOTH ISHWARA AND JIVA IS THE SINGULAR SUPREME SELF/ BRAHMAN. It is the ever-conscious ever-blissful, all-pervasive - only one and the ONLY TRUTH.
Idol worship has its place, provided it is done with sincere sentiment. In absence of devotional sentiment, an idol is just an inert stone. Inert idols, pilgrimage and places of worship will not endow one with the eyes of jnana; it can only be given by an enlightened master.
Darshan of an enlightened being equals to the darshan of the Brahman.
If the seeker has no worldly desires, then the mere presence of an enlightened master purifies, the individual’s mind and such a purified mind becomes eligible to absorb jnana.
चार महावाक्य है:
1)तत् त्वम् असि: वह ब्रह्म तू ही है
2) प्रज्ञानं ब्रह्म: प्रगट ज्ञान ही ब्रह्म है
3) अहम् ब्रह्मास्मि
मैं ही ब्रह्म हूं
4) अहम् आत्मा ब्रह्म
यह आत्मा ही ब्रह्म है ।
अनुयाइयों को यह आदेश था... कि वह लोगों की बुद्धिमता के आधार पर उनका मार्ग प्रशस्त करें:
जो बौद्धिक रूप से चुनौतीपूर्ण थे ... उन्हें धार्मिक अनुष्ठानिक प्रथाएं निभानी थी।
-जो यह नहीं कर सकते थे...उन्हें दान
सेवा जैसी पुण्य कर्म करने होते थे।
जिनमें सूक्ष्मदर्शी और विवेकशील बुद्धिमता थी ...उन्हें वेदांत का ज्ञान दिया जाता था।
मनन और साधना से जो लोग मोक्ष को पाए लेते थे । उन्हें अपने ज्ञान का प्रचार करके दूसरों को भी उसी ओर प्रेरित करना होता था। इस तरह वह बड़ी लगन और प्रतिबद्धता से जीते थे।
शंकराचार्य जी कहते हैं कि गुरु की शरण में ही ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे मंदिर में जाने के लिए चप्पल उतारना अनिवार्य है । ठीक उसी तरह शरीर रूपी चप्पल को भी गुरु के आगे त्यागना अतिआवश्यक है। परिणामस्वरूप, अज्ञानता नष्ट होगी। और हम स्वयं को हर जगह और हर वस्तु में देखने में सक्षम होंगे।।
इस तरह
*सारा संसार इस मन में रहता है
* मन आत्मा के अंदर है
* इस तरह ज्ञानी आत्मा को सब में और सब कुछ आत्मा में देखता है।
इसी संदर्भ में और इसी रूप में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को कल्पवृक्ष, एरावत हाथी ,गंगा , इंद्र और राम कहा है।
इस भाव को समझने के लिए पहले अपने तत्व का ज्ञान होना आवश्यक है।जो परब्रह्म और एकमात्र परम सत्य है।
ऊं.
की ध्वनि परम ज्ञान है और इस ध्वनि से ही पुराणों का आरंभ भी हुआ है ।इसके तीन अंग हमारी तीन
अवस्थाओं को दर्शातें है:
*उठने,
*सोने
*गहन निंद्रा
और
अर्ध चंद्रमा बिन्दु ,जो
* असीमता को दर्शाता है।
जिसका तात्पर्य है
|
इसके भीतर सब कुछ समाया हुआ है।जो परम आनंद, नित्य और सर्वव्यापी ब्रह्म है।
परंतु अज्ञानता वश इस ब्रह्म को बहार तलाश रहे हैं ।
*आत्मा + मन/बुद्धि = जीव
*आत्मा - मन/बुद्धि =परमब्रह्म
*आत्मा का प्रतिबिंब मन/बुद्धि पर = जीव
*आत्मा का प्रतिबिंब माया पर = ईश्वर
[ तत् =जीव
त्वम्= ईश्वर
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तत् त्वम् असि ]
जीव और ईश्वर दोनों ही एकमात्र सत्य है।
इसलिए वेदों में कहा गया है, कि स्वयं को जानते ही ईश्वर की प्राप्ती हो जाती है।
मन्दिर आदि काल से व्यापक नहीं हैं। केवल प्राचीन है। फिर भी अधिकतर लोग गुरु की शरण से अधिक तीर्थ और मूर्ति पूजा ज़रूरी मानते हैं । जबकि, ज्ञानी की संगत का सौभाग्य ब्रह्म दर्शन के समान है। ज्ञानी की छत्रछाया में कष्ट खुद-ब-खुद मिट जाते हैं। तीर्थ में जाने की इच्छुकता का अर्थ है कि अभी भी हम गुरु में ब्रह्म को देखने में समर्थ नहीं हैं। हमारी योग्यता का स्तर अभी कम है।ज्ञान का दान केवल महान ज्ञानी ही दे सकता है।
इसलिए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा : कि मेरे विराट /विश्व रुप को समझो और इसमें ब्रह्म दर्शन करो। इससे तुम्हारी सारी शंकाएं और अज्ञान समाप्त हो जाएगा।