Verse 59
A certain process of reflection and contemplation is required to perceive and understand the existence of Brahman. It is the one entity that pervades every thing. All the upadhis are able to function because they are permeated by Brahman.
Keno-Upanishad says: ‘ That which cannot be understood through the mind, but that which knows the mind - know that to be Brahman.
Boundaries are created by the mind and it is the mind that recognises the name of the body. Name and the form gives one a separate identity.
At the plane of the Self, there is no I and no you, just Shivoham - I am Shiva. Here Shiva doesn’t refer to the form of Mahadev with flowing tresses, serpents and deerskin. Shiva means the absolute reality, Brahman.
The world is a lie; it’s inhabitants are a lie - if they are not renounced, one has to be born again and again. ( could be born in one of 84 lakh species).
The one who discovers his false identifications and establishes in the real Self, becomes free from the bondage of being born again and again. The self-realised individual would see himself/herself separate from the body despite being in the body.
Self-realisation liberates from all the bondages.
Verse 60
Anything afar off oneself, is addressed as ‘that’ and one’s own body is addressed as ‘this body’. ‘This’ indicates closeness and ‘that’ indicates far-away. Brahman is neither close nor afar. The concept of distance is an object, it is in the dimension of space.
Brahman is transcendent to space and time, it is formless, attribute-less, birth-less and change-less. The word used in Sanskrit is: Tat, neither this nor that.
It means ‘As It Is’
Verse 61
Brahman is that which enables the luminosity of all luminous objects, but that which cannot be illumined by anything; that which makes possible to know every thing; that whose light enables the objects like sun to be self luminescent - that is Brahman.
Mind intellect functions only in the light of ‘my’ consciousness; ‘I’ know the state of the mind ( happy/ sad); ‘I’ know if the body is healthy or diseased - This ‘I’ is the pure Self/ Atman/Brahman. Self is known by Self.
One cannot know Brahman; one can only be Brahman. Realisation of this veritable truth face one from all attachments and bandages. On the path of bhakti only external form of Krishna is seen; as long, only external form is seen ignorance exists.
On the path of jnana, ‘I am Krishna’ the day one sees Krishna as his/her own Self, that is the dawn of jnana.
जैसे मक्खन दूध की हर बूंद में निहित है ... वैसे ही ब्रह्मन भी संसार के कण-कण में है । यह वह तत् है, जो सब में व्यापक है ...सब उपाधियां ब्रह्मन में निहित होने के कारण ही सक्षम हैं। जैसे खुली आंख से देखने पर मक्खन नजर नहीं आता, ठीक उसी तरह , ब्रह्मन के अस्तित्व को समझने और जानने के लिए चिंतन और मनन की आवश्यकता है ।यह एक निश्चित प्रक्रिया है ।
मक्खन रुपी ब्रह्मन समस्त सृष्टि में व्यापक है। जैसे
* शरीर की उत्पत्ति और विनाश में
*दिमाग की सोचने की क्षमता में
*बुद्धि के निर्णय लेने की क्षमता में
* पांच तत्वों का अस्तित्व में
*जीव का अस्तित्व में
*ईश्वर का अस्तित्व में
इस तरह, सब ब्रह्मन के कारण ही संभव है।
केनो उपनिषद के अनुसार ....
•जो बुद्धि द्वारा जाना नहीं जा सकता ,परंतु जो बुद्धि को जानता है -उसे ब्रह्मन समझो। •जो मन द्वारा नहीं जाना जा सकता वही ब्रह्मन है ।
•जो आंखों को देखता है परंतु आंखों द्वारा देखा नहीं जा सकता वही ब्रह्मन है।
जिस प्रकार मक्खन निकालने के लिए दूध का मंथन जरूरी है। उसी तरह झूठे "मैं" का भी मंथन जरूरी है ।जो हम नहीं हैं.... उसे नकारना ही एक तरह का मंथन हुआ.... जैसे
- शरीर नहीं ,मन नहीं, चित् नहीं, इंद्रियां नहीं ,बुद्धि नहीं, अहंकार नहीं।
इस तरह मंथन से अशुद्धियां पृथक हो गई और केवल शुद्ध मक्खन रूपी
श्लोक 60:
ब्रह्मन :
*ना ही सूक्ष्म है नहीं ही स्थूल
*ना ही छोटा है ना ही बड़ा *अपरिवर्तनशील *जन्महीन
*निर्गुण
*रंगहीन
*पंथहीन
और
*प्रकृति के गुणों से रहित
है।
यहां प्रश्न यह है कि:
- ब्रह्मन यह है?
या
-ब्रह्मन वो है ?
साधारणतया .... *"यह " का संबोधन निकटता का एहसास करवाता है..
*जबकि "वो" का संबोधन दूरी का एहसास देता है। इसीलिए अक्सर शरीर को हम "यह" कह कर संबोधित करते हैं ....जो निकटता दर्शाता है।
परंतु ,अगर विचार करें कि
*ब्रह्मन कहां है ?
*नजदीक है या दूर ?
परंतु , वास्तव में यह दोनों धारणाएं ही गलत हैं । क्योंकि दूरी और पास की अवधारणा अंतरिक्ष/ आकाश के आयाम में है।
जबकि ब्रह्मन आकाश और समय से कहीं उत्कृष्ट है ।यह:
निराकार ,गुण रहित, जन्म रहित, अपरिवर्तनशील - ब्रह्मन है।
अर्थात
*ब्रह्मन तत् है ।
|
ना यह है ना वो ।
|
बस जैसा है वैसा है।
यह वेदान्तिक ज्ञान है । इस ज्ञान को समझने के लिए कुशाग्र बुद्धि चाहिए। यदि यह ज्ञान हमें समझ ना आए, तो ज्ञान पर नहीं बल्कि अपनी बुद्धि पर संदेह करना चाहिए । इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना चाहिए।
श्लोक 61:
जो सब को प्रकाशित करता है.... (यहां तक कि सूर्य को भी ) पर जिसे प्रकाशित नहीं किया जा सकता। परंतु,वही सब के प्रकाशित होने का कारण है ...वह ब्रह्मन है।
सूर्य स्वयं प्रकाशमय होते हुए भी समय और स्थान में सीमित है और साथ -साथ जड़ भी है।
*जिसके कारण सबकुछ समझना और जानना संभव है।
* जिसका प्रकाश सूर्य आदि वस्तुओं को प्रकाशित होने में सक्षम बनाता है....
वही ब्रह्मन है ।
गुरु कृपा से अज्ञानता का नाश होते ही ....आंतरिक अंधकार भी समाप्त हो जाता है और बुद्धि प्रकाशित हो उठती है ।
इससे यह एहसास हो जाता है कि ....
*मैं स्वयं ही *प्रकाशमय , *जागरूक -ब्रह्मन हूं । -मन /बुद्धि मेरी चेतना में ही कार्यरत हैं ।
- मैं मन की स्थिति जानता हूं ...सुख/दुःख।
-मैं जानता हूं कि शरीर स्वस्थ है/ रोगी
-यह मैं कौन है?
|
यह
*शुद्ध *स्वयं *आत्मन- ब्रह्मन है।
प्रश्न यह है कि- "मैं" को कैसे जाना जाए ?
-स्वयं को स्वयं से ही जाना जा सकता है।
-इस "मैं" को जानने के लिए किसी और की आवश्यकता नहीं है।
-ब्रह्मन को जाना नहीं जा सकता।
- इसके लिए ब्रह्मन ही होना पड़ता है।
किसी भी चीज को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है। जबकि ब्रह्मन को बुद्धि से नहीं जान सकते। क्योंकि वह बुद्धि से कहीं अधिक उत्कृष्ट है।
इस सत्य का बोध सर्वश्रेष्ठ है ।यही अहसास इंसान को सब आक्तियों से मुक्त कर देता है ।
भक्ति मार्ग पर:
...श्री कृष्ण के केवल बाहरी स्वरूप की पूजा होती है। जब तक बाहरी रूप दिखाई देगा ... तब तक अज्ञानता का अंश बाकी है। ज्ञान मार्ग पर :जब व्यक्ति...
"मैं कृष्ण हूं" स्वयं को उस रूप में देखता है .. तो वह असल में ज्ञानी हो जाता है।
एक प्रबुद्ध ज्ञानी के लिए :
*आत्मा ही विष्णु है *आत्मा ही शिव है *आत्मा ही कृष्ण है *वह आत्मा को सब में
और
*हर जगह देखता है।
जब व्यक्ति इस उत्तम अवस्था को पा लेता है ..तब वह सब बंधनऔर दुःखों से मुक्त हो जाता है।
भले ही हम यह सब समझने में सक्षम हो या ना हो। पर फिर भी हम ब्रह्मन ही है।