Atmabodha Part 3a
1. What will lead to self realisation?
2. If austerities do not ensure self realisation then why should I waste my time on them?
3. If I believe 100% that there is God, then this is the truth. True or false?
4. If my life is going very well and I am totally satisfied then do I need self realisation?
1. आत्म-साक्षात्कार की ओर क्या ले जाएगा?
2. यदि तपस्या आत्म-साक्षात्कार सुनिश्चित नहीं करती है तो मैं अपना समय क्यों बर्बाद करूँ?
3. अगर मैं 100% मानता हूं कि भगवान है, तो यह सच्चाई है। सही या गलत?
4. अगर मेरा जीवन बहुत अच्छा चल रहा है और मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं तो क्या मुझे आत्मसाक्षात्कार की आवश्यकता है?
ज्ञान कर्म का अविरोधी है।अर्थात कर्म करने से अज्ञान दूर नहीं होता ना ही उसका प्रभाव कम होता है। ज्ञान की रोशनी ही अज्ञान को दूर कर सकती है । जैसे अंधकार को सिर्फ रोशनी ही दूर कर सकती है। अच्छे और बुरे कर्म दोनों ही हमें अज्ञानी बनाए रखते हैं। अज्ञान का बंधन केवल ज्ञान से ही टूटेगा। ज्ञान प्राप्ति गुरु से होगी और इस ज्ञान से ही मुक्ति के द्वार खुलेंगे।
गुरु =ज्ञान
ज्ञान = आत्मज्ञान
आत्मज्ञान= मोक्ष
बुल्ले शाह ने अपने गुरु की सात परिक्रमा करके उनको सात हज के बराबर कहां। साक्षात गुरु के वचन ,ज्ञान और प्यार का महत्व मंदिर और मस्जिद से कई गुना ज्यादा है।
जिसे अज्ञान दुःख दे और ज्ञान की भूख हो उसे ही ज्ञान के भोजन से मोक्ष मिल सकता है और जन्म मरण से छुटकारा भी।
इसी ज्ञान से
१.. कबीर कबीर हुए
२.. अर्जुन मुक्त हुआ
३.. भाई लहना गुरु नानक की गद्दी के योग्य हुए
४.. दादू दादू हुए
गुरु के आगे सर झुकाना सब को अच्छा लगता है परंतु अपने भीतर अज्ञान मिटाकर गुरु भाव जगाना सबके बस की बात नहीं।
४शलोक (भाव)
अज्ञान से जो सीमित प्रतीत होता है वही ज्ञान हो जाने पर असीमित हो जाता है।
उदाहरण के तौर यदि सूर्य बादल के पीछे हैं इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है सूरज छुप गया है बल्कि यह है कि हमारी आंखों के आगे बादल होने से वह दिखाई नहीं दे रहा। सूर्य तो हमेशा प्रकाशमान है और इसी तरह हमारी आत्मा भी प्रकाशमान है। पर सूर्य रूपी आत्मा पर अज्ञान के बादल छाए हुए हैं। जो ज्ञान के प्रकाश में ही दूर होंगे।
ज्ञानी और अज्ञानी सबकी आत्मा प्रकाशमान और आनंदमय है। संसार में जितने भी लोग हैं उन सब की
देह
इन्द्रियां
मन
बुद्धि
निसंदेह भिन्न है परंतु जिस (मैं ) से वह स्वयं के होने का परिचय देते हैं। वह तीन प्रकार का है:
१....देह वाला मैं
स्वयं को शरीर मानना
२.. जीव वाला मैं
मन में आत्मा के प्रतिबिंब को जीव कहते हैं।
चन्द्रमा (आत्मा)
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पानी में चन्द्रमा का प्रतिबिंब
(मन में आत्मा का प्रतिबिंब)
जीव=मन +आत्मा का प्रतिबिंब + आत्मा
३.. आत्मा वाला मैं
आत्मस्वरुप
देह और मन तो सीमित है।काल पर निर्भर है। केवल आत्मा ही असीमित है और उसको जानने की ज्ञिज्ञासा ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए।