श्लोक 19:
जब विवेक की प्राप्ति हो जाएगी तो आत्मबोध हो जाएगा या ऐसे भी कह सकते हैं जब आत्मबोध हो जाएगा विवेक की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसी स्थिति में सत्य है और असत्य का ज्ञान हो जाएगा। साक्षी हो जाएंगे। सब बदलने के चश्मदीद गवाह हो जाएंगे।
शंकराचार्य जी उदाहरण देते हुए कहते हैं जैसे स्कूटर के पीछे बैठे हुए बच्चे को चंद्रमा अपने साथ चलता महसूस होता है । या चलती ट्रेन से पेड़ आदि विपरीत दिशा में भागते दिखाई देते हैं। परंतु यह दोनों परिस्थितियां भ्रम मात्र ही हैं। इसी तरह शरीर और अंतःकरण द्वारा किए गए कार्य quot;मैंquot; कर रहा हूं -यह भी भ्रम है।
*शरीर बदल रहा है।
* मन की भावनाएं बदल रही हैं ।
*बुद्धि हर पल बदल रही है।
*केवल quot;मैं quot;नहीं बदल रहा।
जब quot;मैंquot; शरीर, मन- बुद्धि के साथ एकसार हो जाता है। तब ऐसा लगता है कि quot;मैंquot; ही बदल रहा हूं।
*यही माया है
*यही भ्रम है
*यही जानना है *यही ज्ञान है।
इसी ज्ञान/ विवेक का अनुभव योग निद्रा के द्वारा निरंतर अभ्यास से किया जा सकता है।
श्लोक 20:
शरीर और अंतःकरण quot;आत्माquot; की सत्ता पर काम कर रहे हैं। केवल बुद्धि से समझना भी ज्ञान नहीं है। ज्ञान प्राप्ति के लिए 3 गुणों का होना जरूरी है:
1. श्रवण: सुनना, श्रद्धा से सुनने की कला श्रवण है। अधिकतर लोग यही रह जाते हैं।
2... मनन: कैसे समझना है कि सब कुछ मिथ्या है, जो दिख रहा है वह भ्रम है। यहां पर काफी समय लग जाता है और दिमाग का मंथन भी होता है। गुरु ही इस पड़ाव से पार करवाता है।
3..., निंदिध्यासन: मनन के बाद बुद्धि विवेक की सीमा पर पहुंच कर- सारे संशयों को तोड़ देती है। ज्ञान के लिए बिल्कुल तैयार है। पर अब समस्या यह है कि- मैं ब्रह्म हूं ,पता है ।परंतु इसको कैसे अपने अंदर उतारा जाए? अब गुरु ही उसको ऊपर खींच सकता है।
जैसे एक वीणा के बजते ही दूसरी वीणा स्वयं ही बज उठे, उसे प्रवीण कहा जाता है। उसी तरह जब साधक संदेह रहित हो जाता है: तो मानो उसकी वीणा तैयार है। उसका बजना ही बाकी है ।
अब उसे वह गुरु रूपी वीणा चाहिए तो पहले से ही बज (ब्रह्मज्ञ प्राप्त) चुकी है। अतः गुरु रूपी वीणा बजते ही साधक की ब्रह्म ज्ञान रूपी वीणा बज उठेगी।
इसलिए साधक को अपनी योग्यता का स्तर उतना ऊपर लेकर आना है कि गुरु वीणा से वह भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ले।