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मणिपुरी:
मणिपुरी नृत्य भारत के आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इस नृत्य का नाम भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के नाम पर रखा गया है, जहाँ से इसकी शुरुवात हुई थी, लेकिन अन्य शस्त्रीय नृत्यों की तरह, इसकी जड़ें भी भरत मुनि के 'नाट्य शास्त्र' में मिलती हैं। इस नृत्य में भारतीय और दक्षिण पूर्व एशियाई संस्कृति का मिश्रण स्पष्ट दिखाई देता है। इस जगह की सदियों पुरानी नृत्य परंपरा भारतीय महाकाव्यों, 'रामायण' और 'महाभारत' से प्रकट होती है, जहां मणिपुर के मूल नृत्य विशेषज्ञों को 'गंधर्व' कहा जाता है। परंपरागत रूप से मणिपुरी लोग खुद को 'गंधर्व' मानते हैं जो देवों या देवताओं से जुड़े गायक, नर्तक और संगीतकार थे जिनका वैदिक ग्रंथों में उल्लेख भी मिलता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दक्षिणपूर्व एशियाई मंदिरों में नर्तकों के रूप में 'गंधर्वों' की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। प्राचीन मणिपुरी ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख 'गंधर्व-देश' के रूप में भी किया गया है। इसे विशेष रूप से वैष्णववाद पर आधारित विषयों और 'रास लीला' के शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। इस नृत्य कला के माध्यम से अन्य विषयों जैसे शक्तिवाद और शैववाद का प्रदर्शन भी होता है। इसके आलावा मणिपुरी त्योहार 'लाई हरोबा' के दौरान उमंग लाई नामक वन देवताओं से जुड़ी कथाओं का मंचन भी किया जाता है।
परंपरा के अनुसार इस नृत्य कला का ज्ञान मौखिक है और महिलाओं को मौखिक रूप से दिया जाता है जो मणिपुर में 'चिंगखेरोल' के नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ प्राचीन मणिपुरी ग्रंथ धीरे-धीरे नष्ट हो गए, पर मणिपुरी की मौखिक परंपरा के प्रमाण 18वीं शताब्दी की शुरुआत के अभिलेखों में, और एशियाई पांडुलिपियों में भी पाए गए हैं।
सन 1717 में राजा गरीब निवाज ने भक्ति वैष्णववाद को अपनाया, जिसमें भगवान कृष्ण से जुड़े विषयों पर आधारित गायन और नृत्य सहित धार्मिक प्रदर्शन कलाओं का उच्चारण होता था। मणिपुर में 'रास लीला' का आविष्कार और वैष्णववाद का प्रसार करने का श्रेय राजर्षि भाग्य चंद्र को जाता है। इस नृत्य शैली का प्रदर्शन और मूल नाटक विभिन्न मौसमों के हिसाब से होता है। मणिपुरी नृत्य अगस्त से नवंबर तक तीन बार शरद ऋतु में, और एक बार वसंत ऋतु में मार्च-अप्रैल के आसपास किया जाता है। सभी प्रदर्शन पूर्णिमा की रात में किए जाते हैं। जबकि वसंत रास, वसंत ऋतु में रंगों के त्यौहार होली के समय किया जाता है। गीतों और नाटकों के विषयों में सुदेवी, रंगदेवी, ललिता, इंदुरेखा, तुंगविद्या, विशाखा, चंपकलता और चित्रा नाम की गोपियों के साथ राधा और कृष्ण का प्रेम शामिल है।
मणिपुरी नर्तकों की वेशभूषा, विशेष रूप से महिलाओं के वस्त्र अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में पहने जाने वाले वस्त्रों से काफी अनूठे है। एक पुरुष नर्तक चमकीले रंग की धोती पहनता है, जिसे धोरा या धोत्र कहा जाता है। नर्तक सर पर मोरपंख से सजा एक मुकुट पहनते हैं, जो भगवान कृष्ण को चित्रित करता है।
महिला नर्तकियों की वेशभूषा मणिपुरी दुल्हन की तरह होती है, जिसे पोटलोई वेशभूषा कहा जाता है। यह पोषाक 'रास लीला' में गोपियों की भूमिका निभाने वाली नर्तकियों के लिए मेइदिंगु भाग्यचंद्र महाराज द्वारा सुझाई गई थी। इनमें से सबसे विशिष्ट कुमिल पोशाक होती है जो कठोर तल वाली एक बिना घेर के सीधे घागरे जैसी होती है जिसमें सोने और चाँदी की सुंदर कढ़ाई की गई होती है। उसके ऊपर एक पारदर्शी कपडे की झालर पहनी जाती है जो फूल की पंखुड़ियों के सामान घागरे पर टिक जाती है, आप इसकी तुलना पश्चिम के बैले में पहने जाने वाले टुटु से कर सकते हैं, बस किनारों पर लगे सुनहरे गोटे के साथ ये उससे थोड़ा ज़्यादा सुन्दर होता है। घागरे के ऊपर एक वेलवेट का ब्लाउज पहना जाता है और उसपर दुपट्टा पहना जाता है। आखिर में नृत्यांगनाएं सर पर एक पारदर्शी चुन्नी का घूँघट ओढ़ती है जिसकी आड़ में से उनका मोहक रूप और हाव-भाव साफ़ देखे जा सकते हैं। मुझे तो ये बहुत ही आकर्षक लगता है।
प्रसिद्ध मणिपुरी कलाकारों में गुरु बिपिन सिंह, उनकी शिष्या दर्शना ज़वेरी और उनकी बहनें नयना, रंजना और सुवर्णा, चारु माथुर और देवयानी चालिया शामिल हैं।
मणिपुरी:
मणिपुरी नृत्य भारत के आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इस नृत्य का नाम भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के नाम पर रखा गया है, जहाँ से इसकी शुरुवात हुई थी, लेकिन अन्य शस्त्रीय नृत्यों की तरह, इसकी जड़ें भी भरत मुनि के 'नाट्य शास्त्र' में मिलती हैं। इस नृत्य में भारतीय और दक्षिण पूर्व एशियाई संस्कृति का मिश्रण स्पष्ट दिखाई देता है। इस जगह की सदियों पुरानी नृत्य परंपरा भारतीय महाकाव्यों, 'रामायण' और 'महाभारत' से प्रकट होती है, जहां मणिपुर के मूल नृत्य विशेषज्ञों को 'गंधर्व' कहा जाता है। परंपरागत रूप से मणिपुरी लोग खुद को 'गंधर्व' मानते हैं जो देवों या देवताओं से जुड़े गायक, नर्तक और संगीतकार थे जिनका वैदिक ग्रंथों में उल्लेख भी मिलता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दक्षिणपूर्व एशियाई मंदिरों में नर्तकों के रूप में 'गंधर्वों' की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। प्राचीन मणिपुरी ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख 'गंधर्व-देश' के रूप में भी किया गया है। इसे विशेष रूप से वैष्णववाद पर आधारित विषयों और 'रास लीला' के शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। इस नृत्य कला के माध्यम से अन्य विषयों जैसे शक्तिवाद और शैववाद का प्रदर्शन भी होता है। इसके आलावा मणिपुरी त्योहार 'लाई हरोबा' के दौरान उमंग लाई नामक वन देवताओं से जुड़ी कथाओं का मंचन भी किया जाता है।
परंपरा के अनुसार इस नृत्य कला का ज्ञान मौखिक है और महिलाओं को मौखिक रूप से दिया जाता है जो मणिपुर में 'चिंगखेरोल' के नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ प्राचीन मणिपुरी ग्रंथ धीरे-धीरे नष्ट हो गए, पर मणिपुरी की मौखिक परंपरा के प्रमाण 18वीं शताब्दी की शुरुआत के अभिलेखों में, और एशियाई पांडुलिपियों में भी पाए गए हैं।
सन 1717 में राजा गरीब निवाज ने भक्ति वैष्णववाद को अपनाया, जिसमें भगवान कृष्ण से जुड़े विषयों पर आधारित गायन और नृत्य सहित धार्मिक प्रदर्शन कलाओं का उच्चारण होता था। मणिपुर में 'रास लीला' का आविष्कार और वैष्णववाद का प्रसार करने का श्रेय राजर्षि भाग्य चंद्र को जाता है। इस नृत्य शैली का प्रदर्शन और मूल नाटक विभिन्न मौसमों के हिसाब से होता है। मणिपुरी नृत्य अगस्त से नवंबर तक तीन बार शरद ऋतु में, और एक बार वसंत ऋतु में मार्च-अप्रैल के आसपास किया जाता है। सभी प्रदर्शन पूर्णिमा की रात में किए जाते हैं। जबकि वसंत रास, वसंत ऋतु में रंगों के त्यौहार होली के समय किया जाता है। गीतों और नाटकों के विषयों में सुदेवी, रंगदेवी, ललिता, इंदुरेखा, तुंगविद्या, विशाखा, चंपकलता और चित्रा नाम की गोपियों के साथ राधा और कृष्ण का प्रेम शामिल है।
मणिपुरी नर्तकों की वेशभूषा, विशेष रूप से महिलाओं के वस्त्र अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में पहने जाने वाले वस्त्रों से काफी अनूठे है। एक पुरुष नर्तक चमकीले रंग की धोती पहनता है, जिसे धोरा या धोत्र कहा जाता है। नर्तक सर पर मोरपंख से सजा एक मुकुट पहनते हैं, जो भगवान कृष्ण को चित्रित करता है।
महिला नर्तकियों की वेशभूषा मणिपुरी दुल्हन की तरह होती है, जिसे पोटलोई वेशभूषा कहा जाता है। यह पोषाक 'रास लीला' में गोपियों की भूमिका निभाने वाली नर्तकियों के लिए मेइदिंगु भाग्यचंद्र महाराज द्वारा सुझाई गई थी। इनमें से सबसे विशिष्ट कुमिल पोशाक होती है जो कठोर तल वाली एक बिना घेर के सीधे घागरे जैसी होती है जिसमें सोने और चाँदी की सुंदर कढ़ाई की गई होती है। उसके ऊपर एक पारदर्शी कपडे की झालर पहनी जाती है जो फूल की पंखुड़ियों के सामान घागरे पर टिक जाती है, आप इसकी तुलना पश्चिम के बैले में पहने जाने वाले टुटु से कर सकते हैं, बस किनारों पर लगे सुनहरे गोटे के साथ ये उससे थोड़ा ज़्यादा सुन्दर होता है। घागरे के ऊपर एक वेलवेट का ब्लाउज पहना जाता है और उसपर दुपट्टा पहना जाता है। आखिर में नृत्यांगनाएं सर पर एक पारदर्शी चुन्नी का घूँघट ओढ़ती है जिसकी आड़ में से उनका मोहक रूप और हाव-भाव साफ़ देखे जा सकते हैं। मुझे तो ये बहुत ही आकर्षक लगता है।
प्रसिद्ध मणिपुरी कलाकारों में गुरु बिपिन सिंह, उनकी शिष्या दर्शना ज़वेरी और उनकी बहनें नयना, रंजना और सुवर्णा, चारु माथुर और देवयानी चालिया शामिल हैं।