लेखक बताता है कि बहुत समय पहले की बात है एलिजाबेथ द्वितीय के भारत आने की चारों तरफ चर्चा थी। दरजी पोशाकों को लेकर परेशान था कि रानी कहाँ क्या पहनेंगी। गुप्तचरों का पहले अंदेशा था कि तहकीकात कर ली जाय । नया जमाना था सो फोटोग्राफरों की फौज तैयार थी। इंग्लैंड के अखबारों की कतरने भारतीय अखबारों में छब रही थीं। सुनने में आया कि रानी के लिए चार सौ पौंड का हल्का नीला सूट बनवाया गया है जो भारत से मंगवाया गया था। रानी एलिजाबेथ की जन्मपत्री और फिलिप के कारनामें छापे गए। लेखक व्यग्य करते हुए कहता है कि अंगरक्षकों, रसोइयों की तो क्या एलिजाबेथ के कुत्तों तक की जीवनियाँ अखबारों में छप गई।
इन दिनों इंग्लैंड की हर खबर भारत में तुरंत आ रही थी। दिल्ली में विचार हो रहा था कि जो इतना महंगा सूट पहन कर आएगी, उनका स्वागत कितना भव्य करना पड़ेगा। किसी के बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने राजधानी सुन्दर, स्वच्छ तथा इमारते सुंदरियों सी सज गई लेखक आगे बताता है कि दिल्ली में किसी चीज की कमी नहीं थी एक चीज को छोड़कर और वह थी लाट से गायब जॉर्ज पंचम की नाक।
लेखक कहता है कि इस नाक के लिए कई दिन आन्दोलन चले थे। कुछ कहते थे कि नाक रहने दी जाए, कुछ हटाने के पक्ष में थे। नाक रखने वाले रात दिन पहरे दे रहे थे। हटाने वाले ताक में थे। लेखक कहता है कि भारत में जगह-जगह ऐसी नाकें थीं और उन्हें हटा-हटा कर अजायबघर पहुंचा दिया गया था। कहीं-कहीं इन शाही नाकों के लिए छापामार युद्ध की स्थिति बन गई थी।
लेखक कहता है कि लाख चौकसी के बावजूद इंडिया गेट के सामने वाले खम्भे से जॉर्ज पंचम की नाक चली गई और रानी पति के राज्य में आए और राजा की नाक न पाए तो इससे बड़ी व्यथा क्या हो सकती है। सभाएँ बुलाई गई, मंत्रणा हुई कि जार्ज की नाक इज्जत का सवाल है। इस अति आवश्यक कार्य के लिए मूर्तिकार को सर्वसम्मति से यह कार्य सौंप दिया गया। मूर्तिकार ने कहा कि नाक तो बन जाएगी पर ऐसा पत्थर लाना होगा।
सभी नेताओं ने पत्थर लाने की बात पर एक दूसरे को ऐसे ताका जैसे यह कार्य अपने से दूसरे पर थोप रहे हों। फिर इस सवाल का हल क्लर्क को सौंप कर हो गया। क्लर्क ने पुरातत्व विभाग की फाइलें चैक की। कुछ हासिल न होने पर काँपते हुए समिति से माफी मांग ली। सबके चेहरे उतर गए। अब एक और कमेटी तैयार करके यह काम उसे हर हालत में करने का आदेश दिया गया। दूसरी समिति ने फिर मूर्तिकार को बुलाया और मूर्तिकार ने कहा कि भारत में क्या चीज है जो नहीं मिलती। वह हर हाल में यह काम करेगा चाहे पूरा भारत खोजना पड़े। उसकी मेहनत का भाषण तुरंत अखबार में छप गया।
मूर्तिकार ऐसे पत्थर की खोज करने गया जिससे लाट पर मूर्ति बनी थी परन्तु उसने निराशाजनक जवाब देते हुए कहा कि नाक विदेशी पत्थर की बनी है। सभापति ने क्रोधित होकर कहा कि कितने बेइज्जती की बात हैं कि भारतीय संस्कृति ने पाश्चात्य संस्कृति पूरी तरह अपना ली। फिर भी पत्थर नहीं मिला। उदास मूर्तिकार अचानक चहककर बोला कि उपाय एक है लेकिन अखबार वालों तक न पहुँचे। सभापति खुश हुआ। चपरासी ने गुप्त वार्ता के लिए सारे दरवाजे बंद कर दिए। मूर्तिकार झिझकते हुए बोला कि अगर इजाजत हो तो अपने नेताओं की किसी मूर्ति की नाक उतार कर इस पर लगा दी जाएगी। कुछ झिझक के बाद सभापति ने खुशी से स्वीकृति देते हुए इस कार्य को बड़ी होशियारी से अंजाम देने को कहा।
लेखक कहता है कि नाक के लिए मूर्तिकार फिर यात्रा पर चल दिया। वह दिल्ली से बम्बई गया, गुजरात और बंगाल गया. यूपी., मद्रास, मैसूर, केरल आदि पूरे भारत के चप्पे-चप्पे में गया परन्तु सब प्रतिष्ठित देशभक्त नेताओं की नाक जार्ज की नाक से लम्बी थी। यह जवाब पाकर सब फिर क्रोधित हुए। मूर्तिकार ने ढांढस बँधाते हुए कहा कि सन् बयालिस में शहीद हुए बच्चों की नाक शायद ऐसी मिल जाए। परन्तु दुर्भाग्य बच्चों की नाक भी जॉर्ज की नाक से बड़ी थी। मूर्तिकार ने फिर निराश होते हुये जवाब दे दिया।
दिल्ली की तमाम तैयारियां पूरी हो गई परन्तु नेता नाक के लिए परेशान थे। मूर्तिकार पैसों का लालच नहीं छोड़ पा रहा था। उसने एक और उपाय सुझाया कि चालिस करोड़ जनता में से किसी का तो नाक नाप का मिलेगा और इसके लिए आप परेशान न हो क्योंकि नाक की जिम्मेदारी उसकी है। कानाफूसी के बाद उसे इजाजत दे दी गई।
लेखक बताता है कि दूसरे दिन अखबार में सिर्फ इतना छपा कि जॉर्ज को जिंदा नाक लगाई गई है। नाक से पहले हथियार बंद सैनिक तैनात किए गए। तालाब को साफ कर ताजा पानी भरा गया ताकि जिन्दा नाक सूखे नहीं। मूर्तिकार स्वयं अपने बताए हल से परेशान कुछ और समय माँग रहा था। उसने हिदायत अनुसार नाक लगा दी। लेकिन उस दिन अखबार में कोई खबर नहीं आई। न फीता कटा और न उद्घाटन कर कुछ स्वागत समारोह नहीं हुआ। लेखक कहता है कि एक ही तो नाक चाहिए थी फिर इतना