रूस और यूक्रेन के बीच चार हफ़्तों से भी अधिक समय से जंग जारी है. एक बड़ा युद्ध गतिरोध में है. पश्चिमी देश इस युद्ध में अपनी सेना नहीं भेजेंगे, लेकिन फिर भी उन्होंने रूस पर 'आर्थिक युद्ध' का बिगुल फूंक दिया है. युद्ध के तरीके जो भी हों, लेकिन अंत में यह जंग ज़ेलेंस्की और पुतिन के बीच नहीं, बल्कि रूस और 'पश्चिम' के बीच है. रूस इन उपायों के प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है और खुद के प्रतिवाद की घोषणा कर रहा है. इस बीच समस्या यह है कि ये 'आर्थिक हथियार' न केवल विरोधी पक्ष को चोट पहुंचाते हैं, बल्कि उपयोगकर्ता को भी प्रभावित करते हैं. दुनिया भर के कई अन्य देशों को भी इस तरह के युद्ध की कीमत चुकानी पड़ी है.
सैन्य अभियान जैसे प्रतिबंधों को शुरू करना आसान है, लेकिन उन्हें समाप्त करना मुश्किल है. प्रतिबंधों की नौकरशाही (बैंकिंग और वित्तीय संस्थान) अपनी गति से चलती है.
पीछे हटना अधिक कठिन क़दम होने जा रहा है. इसमें कूटनीति को हस्तक्षेप करना ही चाहिए - चाहे वह संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन हों, या फिर दुनिया की अन्य बड़ी शक्तियां हों.
यह समय बुद्धिमान, संवेदनशील कूटनीति का होना चाहिए - युद्ध की आग को हवा देने के लिए नहीं, क्योंकि यह कोई ऐसा संघर्ष नहीं है जिसे अच्छाई या बुराई के दोहरे स्वरूप में निपटाया जा सकता है. अगर इसे उसी दोहरे स्वरूप में देखा गया तो इसका केवल एक ही समाधान होगा - और वो है तीसरा विश्व युद्ध.