उस दिन | रूपम मिश्र
उस दिन कितने लोगों से मिली
कितनी बातें , कितनी बहसें कीं
कितना कहा ,कितना सुना
सब ज़रूरी भी लगा था
पर याद आते रहे थे बस वो पल जितनी देर के लिए तुमसे मिली
विदा की बेला में हथेली पे धरे गये ओठ देह में लहर की तरह उठते रहे
कदम बस तुम्हारी तरफ उठना चाहते थे और मैं उन्हें धकेलती उस दिन जाने कहाँ -कहाँ भटकती रही
वे सारी जगहें मेरी नहीं थीं
मेरी जगह मुझसे छूट गयी थी
तो बचे हुए रेह से जीवन में क्या रंग भरती
हवा में जैसे राख ही राख उड़ रही थी जिसकी गर्द से मेरी साँसे भरती जा रही थीं
वहाँ वे भी थे जिनसे मैं अपना दुःख कह सकती थी
लेकिन संकोच हुआ साथी वहाँ अपना दुख कहते
जहाँ जीवन का चयन ही दुःख था
और वे हँसते-गाते उन्हें गले लगाते चले जा रहे थे
जहाँ सुख के कितने दरवाज़े अपने ही हाथों से बंद किये गए थे
जहाँ इस साल जानदारी में कितने उत्सव, ब्याह पड़ेंगे का हिसाब नहीं
कितने अन्याय हुए
कितने बेघर हुए
और कितने निर्दोष जेल गये के दंश को आत्मा में सहेजा जा रहा था
फिर भी वियोग की मारी मेरी आत्मा कुछ न कुछ उनसे कह ही लेती
पर वे मेरे अपने बंजर नहीं थे कि
मैं दुःख के बीज फेंकती वहाँ और कोई डाभ न उपजती
पर कहाँ उगाते वो मेरे इस गुलाबी दुःख को
जहाँ की धरती पर शहतूती सपने बोये जाते हैं
और फ़सल काटने का इंतज़ार वहाँ नहीं होता
बस पीढ़ियों के हवाले दुःखों की सूची करके अपनी राह चलते जाना होता है ।