Not trying to be a cynical Barometer of the Times,
Probably am to be Judged as much as I am Jury,
पसंद आए तो प्रोत्साहन ज़रूर दीजिएगा;
© Capt. Edwin P David
बारिशों के आलम तो देखिए ज़रा,
गली-कूचों में बरसाती नदी-नाले बहने लग गए,
पूरानी कॉपी के काग़ज़ सब इंतज़ार मैं हैं,
जाने वो किशती बनाने वाले बच्चे कहाँ गए?
लगता हैं, मोबाइल फ़ोन में खो गए।
ज्ञान-वर्धक किताबों के अंबार हैं लगे पड़े,
एन्साइक्लपीडीआ अब इतिहास हो गए,
स्मरण शक्ति पर अब ज़ोर नहीं,
वो तेज़ तर्रार बच्चे कहा गए?
क्या गूगल, विकीपेड़िया के आसान जवाबों के भरोसे रह गए।
प्रकृति और संस्कृति मैं हैं नज़ारे अनेक,
सराहने वाले अब बुज़ुर्ग ही रह गए,
क़ुदरती करिश्मे देखने का अब धैर्य नहीं,
देखें तो क्या देखें, यह बच्चे फिर क्या देखे?
यह मासूम तो यू-ट्यूब विडीओज़ में डूब गए।
माँ-बाप अभाव ना पैदा होने की क़वायद में,
तीन, दो, एक पहिए की सारी साइकले दिलाते गए,
पर चोटिल ना हो जाने के भय से,
बच्चे बिना सीखें ही साइकलो से लम्बे हो गए,
वह दिन फिर कहा गए, कम्प्यूटर गेम्ज़ खेलने में निकल गए?
गाजर चकुंदर का रस, नाक बंद करके पिये,
च्यवनप्राश, चूरन और मुरब्बे भी सारे चट हो गए,
खीरें के कतले भी बंद आँखों की सहज पर ख़ूब सोए,
फिर ना जाने कम उम्र में नज़र के चश्मे कैसे लग गए,
क्या निर्मल चक्षु मोबाइल और TV की भेंट चढ़ गए?
डाँट ड़पत के बल पर अपनी लिखाई सुधारते रहे,
फ़ोर लाइन, टू लाइन की बारीकियाँ समझते गए,
चारों और कम्प्यूटर के व्यापक इस्तेमाल को देख,
बच्चे सारे पेन्सल से बॉल-पवोईंट हो गए,
लिखाई पर फिर इतना ज़ोर क्यों, सोचकर कन्फ़्यूज़ हो गए।
दादा-दादी, माता-पिता का ज्ञान पीछे रह गया,
गैजेटस के सहारे सारे बालक स्मार्ट हो गए,
दूरदर्शिता की नयी पीढ़ी से अपेक्षा नहीं,
सोच में बस कौनसे सस्ते टैरिफ़, प्लान आये-गये,
और मोबाइल रीचार्ज की वैधता तक सीमित रह गए।
© Capt. Edwin P David