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Shrimad Bhagavad Gita Chapter-08 (Part-08) in Hindi Podcast
जिससे जीव माया के आधिपत्य से निकल कर आत्मा के आधिपत्य में होजाता है वही अध्यात्म है। और भूतो के वह भाव जो शुभ अथवा अशुभ संस्कारो को उत्पन करते है। उन भावो का रुक जाना विसर्ग – मिट जाना ही कर्म की सम्पूर्णता है। इसके आगे कर्म करने कि आवश्यकता नहीं रह जाती। अत: कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो संस्कारो के उद्गम को ही मिटा देता है।
इसी प्रकार क्षरभाव अधिभूत है अथार्त नष्ट होने वाले ही भूतो को उत्पन करने मे माध्यम है। वे ही भूतो के अधिष्ठाता है। परमपुरष ही अधिदैव है। उसमें देव्य सम्पद विलीन होती है इस शरीर में अधियज्ञ मैं ही हूँ अथार्त जिसमे यज्ञ विलय होते है वह मैं हूँ यज्ञ का अधिष्ठाता हूँ। वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है अथार्त श्रीकृष्ण एक योगी थे। अधियज्ञ कोई ऐसा पुरुष है जो इस शरीरि में रहता है बाहर नहीं। अन्तिम प्रश्न समय में आप किस प्रकार जानने में आते है? उन्होंने वताया की जो मेरा निरंतर स्मरण करते है, मेरे सिवाय किसी दुसरे विषय-वस्तु का चिन्तन नहीं आने देते और ऐसा करते हुए शरीर का सम्बन्ध त्याग देते है वे मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होते है जिसे अन्त में वहीं प्राप्त रहता है। शरीर की मृत्यु के साथ यह उपलव्धि होती हो ऐसी बात नहीं है। मरने पर ही मिलता तो श्रीकृष्ण पूर्ण न होते, अनेको जन्मो में चलकर पानेवाला ज्ञानी उनका स्वरूप न होता। मन का सर्वथा निरोध और निरुद्ध मन का भी विलय ही अन्तकाल है, जहाँ फिर शरीर की उत्पति का माध्यम शांत हो जाता है। उस समय वह परमभाव में प्रवेश पा जाता है। उसका पुनः जन्म नहीं होता।
इस प्राप्ति के लिए उन्होंने स्मरण का विधान वताया – अर्जुन! निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध कर। दोनों एक साथ कैसे होंगे? कदाचित ऐसा हो कि जय गोपाल, हे कृष्णा कहते रहे, लाठी भी चालते रहे। स्मरण का स्वरूप स्पष्ट किया कि योग धारण में स्थिर रहते हुए, मेरे सिवाय अन्य किसी की वास्तु का स्मरण न करते हुए निरन्तर स्मरण कर जब स्मरण इतना सूक्ष्म है तो युद्ध कोन करेगा? मान लीजिये, यह पुस्तक भगवान है, तो अगल बगल की वस्तु, सामने बेठे हुये लोग या अन्य देखी सुनी कोई वस्तु संकल्प में भी ना आये, दिखाई न पड़े। यदि दिखाई पड़ती है तो स्मरण नहीं है। ऐसे स्मरण में युद्ध कैसा? वस्तुत: जब आप इस प्रकार निरंतर स्मरण में प्रवृत्त होंगे, तो उसी क्षण युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है। उस समय मायिक प्रवार्तिया बाधा के रूप में प्रत्यक्ष ही है। काम, क्रोध, राग, द्वेष दुर्जय शत्रु है। ये शत्रु स्मरण करने नहीं देंगे। इनसे पार पाना ही युद्ध है इस शत्रुओं के मीट जाने पर ही व्यक्ति परमगति को प्राप्त होता है।
इस परम गति को पाने के लिए अर्जुन! तू जप तो ॐ का और ध्यान मेरा कर अथार्त श्रीकृष्ण एक योगी थे। नाम और रूप आराधना की कुंजी है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रश्न को भी लिया की पुनर्जन्म क्या है? उसमें कोन – कोन आते है? उन्होंने बताया की ब्रह्मा से लेकर यावन्मात्र जगत पुनरावर्ती है और इन सबके समाप्त होने पर भी मेरा परम अव्यक्त भाव तथा उसमें स्थिति समाप्त नहीं होती।
इस योग मैं प्रविष्ट पुरुष की दो गतिया है। जो पूर्ण प्रकाश को प्राप्त षडैश्वर्यसम्पन्न ऊर्ध्वरेता है, जिसमें लेस मात्र भी कमी नहीं है, वह परमगति को प्राप्त होता है। यदि उस योगकर्ता में लेशमात्र भी कमी है, कृष्णपक्ष-सी कालिमा का संचार है ऐसी अवस्था में शरीर का समय समाप्त होने वाले योगी को जन्म लेना पड़ता है वह समय जीव के तरह जन्म – मरण के चक्कर में नहीं फसता बल्कि जन्म लेकर उससे आगे की शेष साधना को पूरा करता है।
इस प्रकार आगे के जन्म में उसी क्रिया से चलकर वह भी वही पहुचं जाता है। जिसका नाम परमधाम है पहले भी श्रीकृष्ण कह आये है कि इसका थोडा भी साधन जन्म मरण के महान भय से उद्धार करके के छोड़ता है। दोनों रास्ते शाश्वत है, अमिट है, इस बात को समझकर कोई भी पुरुष योग से चलये मान नहीं होता। अर्जुन! तू योगी बन। योगी वेद, तप, यज्ञ और दान के पुण्यफलो का उल्लंघन कर जाता है, परमगति को प्राप्त होता है।
इस अध्याय में स्थान – स्थान पर परमगति का चित्रण किया गया है जिसे अव्यक्त अक्षय और अक्षर कहकर संबोधित किया गया, जिसका कभी क्षय अथवा विनाश नहीं होता।
अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “अक्षर ब्रह्मयोग” नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
By Sunny ParmarShrimad Bhagavad Gita Chapter-08 (Part-08) in Hindi Podcast
जिससे जीव माया के आधिपत्य से निकल कर आत्मा के आधिपत्य में होजाता है वही अध्यात्म है। और भूतो के वह भाव जो शुभ अथवा अशुभ संस्कारो को उत्पन करते है। उन भावो का रुक जाना विसर्ग – मिट जाना ही कर्म की सम्पूर्णता है। इसके आगे कर्म करने कि आवश्यकता नहीं रह जाती। अत: कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो संस्कारो के उद्गम को ही मिटा देता है।
इसी प्रकार क्षरभाव अधिभूत है अथार्त नष्ट होने वाले ही भूतो को उत्पन करने मे माध्यम है। वे ही भूतो के अधिष्ठाता है। परमपुरष ही अधिदैव है। उसमें देव्य सम्पद विलीन होती है इस शरीर में अधियज्ञ मैं ही हूँ अथार्त जिसमे यज्ञ विलय होते है वह मैं हूँ यज्ञ का अधिष्ठाता हूँ। वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है अथार्त श्रीकृष्ण एक योगी थे। अधियज्ञ कोई ऐसा पुरुष है जो इस शरीरि में रहता है बाहर नहीं। अन्तिम प्रश्न समय में आप किस प्रकार जानने में आते है? उन्होंने वताया की जो मेरा निरंतर स्मरण करते है, मेरे सिवाय किसी दुसरे विषय-वस्तु का चिन्तन नहीं आने देते और ऐसा करते हुए शरीर का सम्बन्ध त्याग देते है वे मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होते है जिसे अन्त में वहीं प्राप्त रहता है। शरीर की मृत्यु के साथ यह उपलव्धि होती हो ऐसी बात नहीं है। मरने पर ही मिलता तो श्रीकृष्ण पूर्ण न होते, अनेको जन्मो में चलकर पानेवाला ज्ञानी उनका स्वरूप न होता। मन का सर्वथा निरोध और निरुद्ध मन का भी विलय ही अन्तकाल है, जहाँ फिर शरीर की उत्पति का माध्यम शांत हो जाता है। उस समय वह परमभाव में प्रवेश पा जाता है। उसका पुनः जन्म नहीं होता।
इस प्राप्ति के लिए उन्होंने स्मरण का विधान वताया – अर्जुन! निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध कर। दोनों एक साथ कैसे होंगे? कदाचित ऐसा हो कि जय गोपाल, हे कृष्णा कहते रहे, लाठी भी चालते रहे। स्मरण का स्वरूप स्पष्ट किया कि योग धारण में स्थिर रहते हुए, मेरे सिवाय अन्य किसी की वास्तु का स्मरण न करते हुए निरन्तर स्मरण कर जब स्मरण इतना सूक्ष्म है तो युद्ध कोन करेगा? मान लीजिये, यह पुस्तक भगवान है, तो अगल बगल की वस्तु, सामने बेठे हुये लोग या अन्य देखी सुनी कोई वस्तु संकल्प में भी ना आये, दिखाई न पड़े। यदि दिखाई पड़ती है तो स्मरण नहीं है। ऐसे स्मरण में युद्ध कैसा? वस्तुत: जब आप इस प्रकार निरंतर स्मरण में प्रवृत्त होंगे, तो उसी क्षण युद्ध का सही स्वरूप खड़ा होता है। उस समय मायिक प्रवार्तिया बाधा के रूप में प्रत्यक्ष ही है। काम, क्रोध, राग, द्वेष दुर्जय शत्रु है। ये शत्रु स्मरण करने नहीं देंगे। इनसे पार पाना ही युद्ध है इस शत्रुओं के मीट जाने पर ही व्यक्ति परमगति को प्राप्त होता है।
इस परम गति को पाने के लिए अर्जुन! तू जप तो ॐ का और ध्यान मेरा कर अथार्त श्रीकृष्ण एक योगी थे। नाम और रूप आराधना की कुंजी है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रश्न को भी लिया की पुनर्जन्म क्या है? उसमें कोन – कोन आते है? उन्होंने बताया की ब्रह्मा से लेकर यावन्मात्र जगत पुनरावर्ती है और इन सबके समाप्त होने पर भी मेरा परम अव्यक्त भाव तथा उसमें स्थिति समाप्त नहीं होती।
इस योग मैं प्रविष्ट पुरुष की दो गतिया है। जो पूर्ण प्रकाश को प्राप्त षडैश्वर्यसम्पन्न ऊर्ध्वरेता है, जिसमें लेस मात्र भी कमी नहीं है, वह परमगति को प्राप्त होता है। यदि उस योगकर्ता में लेशमात्र भी कमी है, कृष्णपक्ष-सी कालिमा का संचार है ऐसी अवस्था में शरीर का समय समाप्त होने वाले योगी को जन्म लेना पड़ता है वह समय जीव के तरह जन्म – मरण के चक्कर में नहीं फसता बल्कि जन्म लेकर उससे आगे की शेष साधना को पूरा करता है।
इस प्रकार आगे के जन्म में उसी क्रिया से चलकर वह भी वही पहुचं जाता है। जिसका नाम परमधाम है पहले भी श्रीकृष्ण कह आये है कि इसका थोडा भी साधन जन्म मरण के महान भय से उद्धार करके के छोड़ता है। दोनों रास्ते शाश्वत है, अमिट है, इस बात को समझकर कोई भी पुरुष योग से चलये मान नहीं होता। अर्जुन! तू योगी बन। योगी वेद, तप, यज्ञ और दान के पुण्यफलो का उल्लंघन कर जाता है, परमगति को प्राप्त होता है।
इस अध्याय में स्थान – स्थान पर परमगति का चित्रण किया गया है जिसे अव्यक्त अक्षय और अक्षर कहकर संबोधित किया गया, जिसका कभी क्षय अथवा विनाश नहीं होता।
अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “अक्षर ब्रह्मयोग” नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण होता है।

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