
Sign up to save your podcasts
Or


Shrimad Bhagavad Gita Chapter-11 (Part-11) in Hindi Podcast
इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने कहा – भगवन! आपकी विभूतियों को मैंने विस्तार से सुना, जिससे मेरा मोह नष्ट हो गया, अज्ञान का शमन हो गया, किन्तु जैसा आपने बताया कि मैं सर्वत्र हूँ, इसे मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। यदि मेरे द्वारा देखना संभव हो, तो कृपया उसी रूप को दिखाइये। अर्जुन प्रिय सखा था, अनन्य सेवक था अतएव योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कोई प्रतिवाद न कर तुरन्त दिखाना प्रारम्भ किया कि अब मेरे ही अन्दर खड़े सप्तऋषि और उनसे भी पूर्व होने वाले ऋषियों को देख, सर्वत्र फेले मेरे तेज को देख, मेरे ही शरीर में एक स्थान पर खड़े तू चराचर जगत को देख, किन्तु अर्जुन ऑंखें ही मलता रह गया।
इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण तीन श्लोकों तक अनवरत दिखाते गयें, किन्तु अर्जुन को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। सभी विभूतिया योगेश्वर में उस समय थी, किन्तु अर्जुन को वे समान्य मनुष्य जैसे ही दिखायी पड़ रहे थे। तब इस प्रकार दिखाते – दिखाते योगेश्वर श्रीकृष्ण सहसा रुक जाते है और कहते है – अर्जुन! इन आँखों से तू मुझे नहीं देख सकता। अपनी बुद्धि से तू मुझे परख नहीं सकता। लो, अब मैं तुझे वह दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मुझे देख सकेगा। भगवान तो सामने खड़े ही थे। अर्जुन ने देखा, वास्तव में देखा। देखने के पश्चात क्षुद्र त्रुटियों के लिये क्षमायाचना करने लगा, जो वास्तव में त्रुटियाँ नहीं थी। उदाहरण के लिए, भगवान! कभी मैंने आपको कृष्ण, यादव और सखा कह दिया था, इसके लिए आप मुझे क्षमा करे। श्रीकृष्ण ने क्षमा भी किया, क्योकि अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार कर वे सौम्य स्वरूप मैं आ गये, धीरज बँधाया।
वस्तुतः कृष्ण कहना अपराध नहीं था। वे सावलें थे ही, गोर कैसे कहलाते। यदुवंश में जन्म हुआ ही था। श्रीकृष्ण स्वयं भी अपने को सखा मानते थे। वास्तव में प्रत्येक साधक महापुरुष को पहले ऐसा ही समझते है। कुछ उन्हें रूप और आकार से संबोधित करते है, कुछ उनकी वृति से उन्हें पुकारते है और कुछ उन्हें अपने ही समकक्ष मानते है, उनके यथार्थ स्वरूप को नहीं समझते है। उनके अचिंत्य स्वरूप को अर्जुन ने समझा तो पाया कि ये न तो काले है और न गोरे, न किसी कुल के है और न किसी के साथी है। इनके सामान कोई है ही नहीं, तो सखा कैसा? बराबर कैसा? यह तो अचिंत्य स्वरूप है। जिसे वह स्वयं दिखा दे वह देख पता है। अत: अर्जुन ने अपनी प्रारंभिक भूल के लिये क्षमायाचना की।
प्रश्न उठता है कि जब कृष्ण कहना अपराध है तो उनका नाम जपा कैसे जाय? तो जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जपने के लिये स्वयं बल दिया जपने की हो विधि बताई, उसी विधि से आप चिन्तन-स्मरण करें। वह है –
श्रीकृष्ण ने कहा – अर्जुन! तेरे सिवाय मेरे इस रूप को न कोई देख सका है और न भविष्य में कोई देख सकेगा। तब गीता तो हमारे लिये व्यर्थ है। किन्तु नहीं, योगेश्वर कहते है एक अपाय है। जो मेरा अनन्य भक्त है, मेरे सिवाय जो दुसरे किसी का स्मरण न करके निरन्तर मेरा ही चिन्तन करने वाला है, उनकी अनन्य भक्ति के द्वारा मैं प्रत्यक्ष देखने को ( जैसा तूने देखा है ), तत्व से जानने को और प्रवेश करने को भी सुलभ हूँ। अथार्त अर्जुन अनन्य भक्त था। भक्ति का परिमार्जित रूप है अनुराग, इष्ट के अनुरूप लगाव। ” मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। ” अनुरागविहीन पुरुष न कभी पाया है और न पा सकेगा। अनुराग नहीं है तो कोई लाख योग करे, जप करे, तप करे या दान करे वह नहीं मिलता। अत: इष्ट के अनुरूप राग अथवा भक्ति नितान्त आवश्यक है।
By Sunny ParmarShrimad Bhagavad Gita Chapter-11 (Part-11) in Hindi Podcast
इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने कहा – भगवन! आपकी विभूतियों को मैंने विस्तार से सुना, जिससे मेरा मोह नष्ट हो गया, अज्ञान का शमन हो गया, किन्तु जैसा आपने बताया कि मैं सर्वत्र हूँ, इसे मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। यदि मेरे द्वारा देखना संभव हो, तो कृपया उसी रूप को दिखाइये। अर्जुन प्रिय सखा था, अनन्य सेवक था अतएव योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कोई प्रतिवाद न कर तुरन्त दिखाना प्रारम्भ किया कि अब मेरे ही अन्दर खड़े सप्तऋषि और उनसे भी पूर्व होने वाले ऋषियों को देख, सर्वत्र फेले मेरे तेज को देख, मेरे ही शरीर में एक स्थान पर खड़े तू चराचर जगत को देख, किन्तु अर्जुन ऑंखें ही मलता रह गया।
इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण तीन श्लोकों तक अनवरत दिखाते गयें, किन्तु अर्जुन को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। सभी विभूतिया योगेश्वर में उस समय थी, किन्तु अर्जुन को वे समान्य मनुष्य जैसे ही दिखायी पड़ रहे थे। तब इस प्रकार दिखाते – दिखाते योगेश्वर श्रीकृष्ण सहसा रुक जाते है और कहते है – अर्जुन! इन आँखों से तू मुझे नहीं देख सकता। अपनी बुद्धि से तू मुझे परख नहीं सकता। लो, अब मैं तुझे वह दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मुझे देख सकेगा। भगवान तो सामने खड़े ही थे। अर्जुन ने देखा, वास्तव में देखा। देखने के पश्चात क्षुद्र त्रुटियों के लिये क्षमायाचना करने लगा, जो वास्तव में त्रुटियाँ नहीं थी। उदाहरण के लिए, भगवान! कभी मैंने आपको कृष्ण, यादव और सखा कह दिया था, इसके लिए आप मुझे क्षमा करे। श्रीकृष्ण ने क्षमा भी किया, क्योकि अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार कर वे सौम्य स्वरूप मैं आ गये, धीरज बँधाया।
वस्तुतः कृष्ण कहना अपराध नहीं था। वे सावलें थे ही, गोर कैसे कहलाते। यदुवंश में जन्म हुआ ही था। श्रीकृष्ण स्वयं भी अपने को सखा मानते थे। वास्तव में प्रत्येक साधक महापुरुष को पहले ऐसा ही समझते है। कुछ उन्हें रूप और आकार से संबोधित करते है, कुछ उनकी वृति से उन्हें पुकारते है और कुछ उन्हें अपने ही समकक्ष मानते है, उनके यथार्थ स्वरूप को नहीं समझते है। उनके अचिंत्य स्वरूप को अर्जुन ने समझा तो पाया कि ये न तो काले है और न गोरे, न किसी कुल के है और न किसी के साथी है। इनके सामान कोई है ही नहीं, तो सखा कैसा? बराबर कैसा? यह तो अचिंत्य स्वरूप है। जिसे वह स्वयं दिखा दे वह देख पता है। अत: अर्जुन ने अपनी प्रारंभिक भूल के लिये क्षमायाचना की।
प्रश्न उठता है कि जब कृष्ण कहना अपराध है तो उनका नाम जपा कैसे जाय? तो जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जपने के लिये स्वयं बल दिया जपने की हो विधि बताई, उसी विधि से आप चिन्तन-स्मरण करें। वह है –
श्रीकृष्ण ने कहा – अर्जुन! तेरे सिवाय मेरे इस रूप को न कोई देख सका है और न भविष्य में कोई देख सकेगा। तब गीता तो हमारे लिये व्यर्थ है। किन्तु नहीं, योगेश्वर कहते है एक अपाय है। जो मेरा अनन्य भक्त है, मेरे सिवाय जो दुसरे किसी का स्मरण न करके निरन्तर मेरा ही चिन्तन करने वाला है, उनकी अनन्य भक्ति के द्वारा मैं प्रत्यक्ष देखने को ( जैसा तूने देखा है ), तत्व से जानने को और प्रवेश करने को भी सुलभ हूँ। अथार्त अर्जुन अनन्य भक्त था। भक्ति का परिमार्जित रूप है अनुराग, इष्ट के अनुरूप लगाव। ” मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। ” अनुरागविहीन पुरुष न कभी पाया है और न पा सकेगा। अनुराग नहीं है तो कोई लाख योग करे, जप करे, तप करे या दान करे वह नहीं मिलता। अत: इष्ट के अनुरूप राग अथवा भक्ति नितान्त आवश्यक है।

1,192 Listeners

1,855 Listeners

24 Listeners

6 Listeners