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Shrimad Bhagavad Gita Chapter-14 (Part-14) in Hindi Podcast


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Shrimad Bhagavad Gita Chapter-14 (Part-14) in Hindi Podcast

प्रक्रति से ही उत्पन्न हुए रज, सत्त्व और तम तीनो गुण ही इस जीवात्मा को शरीर में बांधते है। दो गुणों को दवाकर तीसरा गुण बढाया जा सकता है। गुण परिवर्तनशील है। प्रक्रति जो अनादि है, नष्ट नहीं होती, बल्कि गुणों का प्रभाव टाला जा सकता है गुण मन पर प्रभाव डालते है। जब सत्त्वगुण की वृद्धि रहती है तो ईश्वरीय प्रकाश और बोधशक्ति रहती है। रजोगुण रागत्मक है। उस समय कर्म का लाभ रहता है, आसक्ति रहती है और अन्त:करण में तमोगुण कार्य रूप लेने पर आलस्य – प्रमोद घेर लेता है। सत्त्व की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त पुरुष ऊपर के निर्मल लोको में जन्म लेता है। रजोगुण के वृद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य मानव योनी में ही लोटकर आता है और तमोगुण की वृद्धिकाल में मनुष्य शरीर त्यागकर अधम ( पशु, कीट, पतगं इत्यादि ) योनी को प्राप्त होता है। इसलिये मनुष्यों को क्रमशः उत्पन्न गुण सात्त्विक की ओर ही बढ़ाना चाहिये।

वे जिससे मुक्त होते है, उसका स्वरूप बताते हुये योगेश्वर ने कहा- अष्टधा मूल प्रक्रति गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं ही बीज रूप पिता हूँ। अन्य न कोई माता है, न पिता। जब तक ये क्रम रहेगा, तब तक चारचर जगत में निमित रूप से कोई न कोई माता पिता बनते रहंगे, किन्तु वस्तुत: प्रकृति ही माता है, मैं ही पिता हूँ।

अर्जुन ने तीन प्रश्न किये- गुनातीत पुरुष के किया लक्षण है? क्या आचरण है? और किस उपाय से मनुष्य इन तीनो गुणों से अतीत होता है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुणातीत पुरुष के लक्षण और आचरण बताये और अन्त में गुणातीत होने का उपाय बताया कि जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्ति और योग के द्वारा निरन्तर मुझे भजता है वह तीनो गुणों से अतीत हो जाता है।अन्य किसी का चिन्तन न करते हुये निरन्तर इष्ट का चिन्तन करना अव्यभिचारिणी भक्ति है। जो संसार के संयोग-वियोग से सर्वथा रहित है, उसी का नाम योग है। उनको कार्य रूप देने के प्रणाली का नाम कर्म है यज्ञ जिससे सम्पन होता है, वह हरकत कर्म है। अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा उस नियत कर्म के आचरण से ही पुरुष तीनो गुणों से अतीत होता है और अतीत होकर ब्रह्म के साथ एकीभाव के लिए, पूर्ण कल्प को प्राप्त होने के लिए योग्य होता है। गुण जिस मन पर प्रभाव डालते है, उसके विलय होते ही ब्रह्म के साथ एकीभाव हो जाता है, यही वास्तविक कल्प है। अत: बिना भजन किये कोई गुणों से अतीत नहीं होता।

अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण निर्णय देते है- वह गुणातीत पुरुष जिस ब्रह्म के साथ एकीभाव में स्थित होता है उस ब्रह्म का, अमृत तत्व का, शाश्वतधर्म का और अखण्ड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूँ अथार्त प्रधान कर्ता हूँ। अब तो श्रीकृष्ण चले गये, अब वह आश्रय तो चला गया, तब तो बढे संशय की बात है। वह आश्रम अब कहाँ मिलेगा? लेकिन नहीं, श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया है कि वे एक योगी थे,

‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’

अर्जुन ने कहा- मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे सँभालिये। स्थान-स्थान पर श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया, स्थितप्रज्ञ महापुरुष के लक्षण बताये और उनसे अपनी तुलना की। अत: स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण एक महात्मा, योगी थे। अब यदि आपको अखण्ड एकरस आनन्द शाश्वत-धर्म अथवा अमृत तत्व की आवश्यकता है तो इन सबकी प्राप्ति की स्त्रोत एकमात्र सदगुरु है। सीधे पुस्तक पढ़कर इसे कोई नहीं पा सकता। जब वही महापुरुष आत्मा से अभिन्न होकर रथी हो जाते है, तो शनै:-शनै: अनुरागी को संचालित करते हुये उसके स्वरूप तक, जिनमे वे स्वयं प्रतिष्ठित है, पहुँचा देते है। वही एक मात्र माध्यम है। इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने को सबका आश्रय बताते हुये इस चौदहवें अध्याय का समापन किया, जिसमें गुणों का विस्तार से वर्णन है। अत: –

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “गुणत्रय विभाग योग” नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।

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Devotional LoversBy Sunny Parmar


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