मैं सिर्फ तुम्हे अपने लफ्ज़ दे सकती हूँ,
बुन सकती हूं तुम्हारे लिए कुछ कविताएं।
पर जब अभिलाषाएं बाकी रह जाएं
और वह कविता तुम्हें काफ़ी ना हो,
गर उस कविता के समक्ष
नतमस्तक हो जाने को मन ना हो,
अगर उसको तुम
मन के पृष्ठों पर जीवित ना रख सको,
जब थककर लौटो घर रातों को
ना उसमे सुकून का अनुभव कर सको,
तो लौटा देना तुम जुगनू मेरे,
लौटा देना तुम वक़्त मेरा,
मेरे हिस्से का आसमान और
लौटा देना सर्वस्व मेरा।
कवि से प्रेम करो,
और कविता में ना बंधना चाहो
यह कैसी रिवायत होगी?
माफ़ कर देना मुझे क्योंकि
मैं सिर्फ तुम्हे अपने लफ्ज़ दे सकती हूँ,
बुन सकती हूं तुम्हारे लिए कुछ कविताएं।
फिर भी अगर तुम मुझसे
तुम्हें ब्रम्हांड देने की उम्मीद रखते हो,
तो तुमने मुझे जाना नहीं,
तुमने भी नहीं।
इसलिए अब मेरे लफ्ज़ मांगने की भी,
तुम्हें इजाज़त नहीं।
~अक्षिता मिश्रा