उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥ - ऋग्वेद (1.4.5)
जो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए, सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, वे ही (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें, और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धूर्त मनुष्य हैं, वे सब हम लोगों के निवासस्थान से (निरारत) दूर चले जावें, किन्तु (उत) निश्चय करके और देशों से भी दूर हो जायें अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
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