राजस्थान में एक ज़िला है डूंगरपुर। इस ज़़िले में एक गाँव है रास्तापाल। रास्तापाल गाँव में एक स्मारक बना है। यह स्मारक एक आदिवासी बालिका की बहादुरी और बलिदान की निशानी है। 13 साल की लड़की आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ी और अपने प्राणों की बलि दे दी। आप सोच सकते हैं कि 13 साल की बालिका में यह राजनीतिक जागरूकता कहाँ से आई
होगी? उसके हृदय में देश-प्रेम की आग कैसे लगी होगी? फिर ऐसी बालिका जो कच्ची उमर की हो, आदिवासी जाति की हो, कैसे क्राँतिकारी बन बैठी? आश्चर्य की बात तो है ही, पर बात सच है। उसके जीवन की एक अनोखी कहानी है ।बालिका का नाम था कुमारी कालीबाई। कुमारी कालीबाई के माँ-बाप कौन थे, इस बात का तो पता नहीं चल सका, पर इतना ज़रूर पता चला कि कुमारी कालीबाई रास्तापाल गाँव की आदिवासी लड़की थी। रांस्तापाल गाँव तथा आसपास का इलाका आदिवासियों का इलाका है घटना 1947 की है। बस, आजादी मिलने ही वाली थी, तभी रास्तापाल गाँव में यह घटना घटी। गाँव में एक स्कूल था। इस स्कूल में एक शिक्षक थे, जिनका नाम था नानाभाई खाँट । इस स्कूल को भोगीलाल पंडया नामक एक व्यक्ति चलाते थे पंडया जी गुप्त रूप से अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ कुछ काम किया करते थे । स्कूल क्रॉतिकारी गतिविधियों का अड्डा था। स्कूल के दो अध्यापक नानाभाई खाँट और सेंगाभाई क्राँतिकारी गतिविधियाँ चलाते थे । वे क्राँतिकारियों की सभाएँ करते, पर्चे बँटवाते, सूचनाएँ भिजवाते । ये सारे काम गुप्त रूप से किए जा रहे थे । पर कोई बात कब तक गुप्त रहती, एक न एक दिन भेद खुलना ही था। अंग्रेज़ों को इन सारी बातों का पता चल गया। अंग्रेज़ सरकार ने डूंगरपुर के महारावत लक्ष्मणसिंह को सूचित किया कि वह रास्तापाल गाँव का स्कूल बंद करवा दें। वे लक्ष्मणसिंह के कुछ लोग, कुछ सिपाही तथा सेना के जवान लेकर गाँव पहुँचे। उनके साथ डूंगरपुर के ज़िलाधीश भी थे। सिपाहियों ने नानाभाई खाँट और सेंगाभाई से स्कूल बंद कर देने को कहा। उन्होंने जवाब दिया- " हम लोग कौन होते हैं स्कूल बंद करने वाले। स्कूल तो पंडया जी चलाते हैं। वे जानें ।" ज़िलाधीश ने भी स्कूल बंद कर देने को कहा। पर उन लोगों ने उनकी भी बात नहीं
मानी। इस पर चिढ़कर ज़िलाधीश ने पुलिस को आदेश दे दिया कि वे दोनों अध्यापकों को मारपीटकर ठीक कर दें। बस, लगी पुलिस डंडा बरसाने। नानाभाई खाँट को तो मारते मारते वहीं
ढेर कर दिया और सेंगाभाई को जीप के पीछे रस्सियों से बाँध दिया। सेंगाभाई की यह हालत
देखकर कालीबाई दौड़कर जीप के सामने आ गई और बोली - "छोड़ दो मास्टर साहब को।
इन्होंने क्या ग़लती की है?"
एक सिपाही बोला, "भाग जा सामने से, नहीं तो गोली मार दूँगा।"
उस निडर लड़की ने कहा, "मार, देखती हूँ कैसे मारेगा । " बस, इतना कहकर वह
दौड़कर जीप के पीछे आ गई और एक कचिया से रस्सियाँ काट दीं। सेंगाभाई छूट गए और
आनन-फानन में वहाँ से रफूचक्कर हो गए। रह गई वहाँ अकेली कालीबाई। यह देखकर सैनिकों ने कालीबाई पर गोलियों की बौछार कर दी। कालीबाई की जीवनलीला समाप्त हो गई।
कालीबाई के मरने की ख़बर सुनकर हज़ारों की संख्या में भील आदिवासी वहाँ इकट्ठा हो गए। उन्होंने अपना मारू बिगुल बजा दिया और घेर लिया उन अंग्रेज़ों को । भारी भीड़ देखकर वे जीप में सवार होकर भागे वहाँ से । आदिवासियों ने उनका पीछा किया । वे भागते रहे । आदिवासी तब तक उनका पीछा करते रहे जब तक उनकी जीप दूर जाकर ओझल नहीं हो गई। देश की आज़ादी के लिए कालीबाई निछावर हो गई । एक जीवन की कहानी खत्म हो गई ,
लेकिन ख़त्म नहीं हुई, शुरू हुई। कालीबाई अगर साधारण जिंदगी जीतीं तो उनका नाम शायद
कोई न जानता। लेकिन उन्होंने ऐसा काम कर दिखाया जिससे वह हमेशा के लिए अमर हो गईं।
उसका जीवन इतिहास बन गया । ऐसा इतिहास, जिसको पढ़कर देश की हर एक युवती, युवक
देशभक्ति की प्रेरणा लेता रहेगा ।