POETRY PODCAST E6 | DHARMRAJ | DINKAR | PANKAJ UPADHAYAY | धर्मराज , सन्यास खोजना कायरता है मन की है सच्चा मनुजत्व ग्रंथियां सुलझाना जीवन की । दुर्लभ नहीं मनुज के हित , निज वैयक्तिक सुख पाना किन्तु कठिन है कोटि - कोटि मनुजों को सुखी बनाना । एक पंथ है , छोड़ जगत को अपने में रम जाओ , खोजो अपनी मुक्ति और निज को ही सुखी बनाओ । अपर पंथ है , औरों को भी निज - विवेक बल दे कर , पहुँचो स्वर्ग - लोक में जग से साथ बहुत को ले कर । कर्मभूमि है निखिल महीतल, जब तक नर की काया, जब तक है जीवन के अणु-अणु में कर्त्तव्य समाया.. क्रिया-धर्म को छोड़ मनुज कैसे निज सुख पायेगा ? कर्म रहेगा साथ भाग वह जहाँ कहीं जायेगा.. धर्मराज,कर्मठ मनुष्य का पथ सन्यास नहीं है, नर जिस पर चलता वह मिट्टी है,आकाश नहीं है.. दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ श्रेय नहीं जीवन का, है सद्धर्म दीप्त रख उसको हरना तिमिर भुवन का.. इस विविक्त,आहत वसुधा को अमृत पिलाना होगा, अमित लता गुल्मो में फिर से फूल खिलाना होगा.. हरना होगा अश्रु-ताप ह्रित-बंधु अनेक नरों का, लौटाना होगा सुहास अगणित विषण्ण अधरों का.. मिट्टी का यह भर संभालो, बन कर्मठ सन्यासी; पा सकता कुछ नहीं मनुज बन केवल व्योम-प्रवासी.. ऊपर सब कुछ शून्य-शून्य है, कुछ भी नहीं गगन में, धर्मराज ! जो कुछ है,वह है मिट्टी में,जीवन में.. सम्यक विधि से प्राप्त कर नर सब कुछ पाता है, मृति-जयी के पास स्वयं ही अम्बर भी आता है.. भोगी तुम इस भाँती मृति को दाग नहीं लग पाए, मिट्टी में तम नहीं,वही तुममे विलीन हो जाये. Original poetry - Ramdhari Singh Dinkar Rendition by - Pankaj Upadhayay #poetry #PoetryPodcast