पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तयः॑। यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम्॥ - ऋग्वेद (1.11.3)
(यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं, उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियाँ वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी (मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को (मंहते) देता है, तो इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की (पूर्व्यः) सनातन प्राचीन (रातयः) दानशक्ति तथा (ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी (न) नहीं (विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होतीं, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त होती रहती हैं॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
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