अ॒ग्निना॒ग्निः समि॑ध्यते क॒विर्गृ॒हप॑ति॒र्युवा॑। ह॒व्य॒वाड् जु॒ह्वा॑स्यः॥
पदार्थ -
मनुष्यों को उचित है कि जो (जुह्वास्यः) जिसका मुख तेज ज्वाला और (कविः) क्रान्तदर्शन अर्थात् जिसमें स्थिरता के साथ दृष्टि नहीं पड़ती, तथा जो (युवा) पदार्थों के साथ मिलने और उनको पृथक्-पृथक् करने (हव्यवाट्) होम किये हुए पदार्थों को देशान्तरों में पहुँचाने और (गृहपतिः) स्थान तथा उनमें रहनेवालों का पालन करनेवाला है, उस से (अग्निः) यह प्रत्यक्ष रूपवान् पदार्थों को जलाने, पृथिवी और सूर्य्यलोक में ठहरनेवाला अग्नि (अग्निना) बिजुली से (समिध्यते) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है, वह बहुत कामों को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिये॥६॥
भावार्थ -
जो यह सब पदार्थों में मिला हुआ विद्युद्रूप अग्नि कहाता है, उसी में प्रत्यक्ष यह सूर्य्यलोक और भौतिक अग्नि प्रकाशित होते हैं, और फिर जिसमें छिपे हुए विद्युद्रूप हो के रहते हैं, जो इन के गुण और विद्या को ग्रहण करके मनुष्य लोग उपकार करें, तो उन से अनेक व्यवहार सिद्ध होकर उनको अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है, यह जगदीश्वर का वचन है॥६॥
(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
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