बेहतर, बेहतर और बहुत ही बेहतर!
प्रतिस्पर्धा की होड़ कह लो या ज़िंदगी की दौड़ कह लो, हमें सब अच्छा ही नहीं सब कुछ सबसे अच्छा चाहिए। मगर क्या सबसे अच्छा कुछ होता भी है? मुझे तो नहीं लगता, क्योंकि अच्छा केवल तुलनात्मक शब्द है। शायद आप और हम जो जी रहे हैं वो भी बहुत अच्छा है, आपके लिए न सही किसी और के लिए जो आपकी ज़िंदगी को ideal मानता हो।
अब इस बात पर शायद हँस दें की मेरी ज़िंदगी किस तरह से ideal है, बेहतर है, मगर किसी और ज़िंदगी की कठिनाई की तुलना में हो सकती है।
तो क्या बेहतरी की होड़ में भागते रहना गलत है? लगता तो नहीं है, पर खुद की तुलना हमेशा किसी से करते हुए खुद को कमतर आंकना गलत है। आखिर तुम दुनिया में कितने ही बेहतर, मशहूर न हो जाओ, तुम किसी न किसी व्यक्ति से कम ही मशहूर होंगे। तो, आखिर खुद की खुशियों के साथ ये भेदभाव क्यों? क्या ये तुम्हें खुद के लिए वाज़ीफ लगता है? एक बार खुद से जरूर पूछ के देखना।