मैं हमेशा सोचती थी कि मेरे ट्यूशन टीचर अयाज़ सर वक्त के इतने पांबद कैसे थे। शाम के साढ़े पांच बजते ही उनका स्कूटर आकर घर के दरवाज़े पर रुकता था और उसके पांच सेकेंड बाद आवाज़ आती थी - "शाज़िया... " वो वक्त के इतने पाबंद थे कि आप उन्हें देखकर अपनी घड़ी का वक्त मिला सकते थे। ख़ैर, उनकी आवाज़ का जवाब मैं “आ रही हूं सर” कहकर देती फिर मम्मी की तरफ देखकर कहती “मम्मी, सर आ गए। मैं जा रही हूं पढ़ने” और बैग टांग कर बाहरी कमरे की तरफ चल देती। किचन में दर्जनों टिफिन पैक कर रहीं मेरी मम्मी - ताहिरा मुझे देखकर मुस्कुरा देतीं। कुछ देर बाद अम्मी हाथ में चाय लिए हुए कमरे में आतीं तो उनमें एक किस्म की हड़बड़ाहट दिखाई देती थी। हां, मुझे पता था कि पिछले सात-आठ महीने से मेरी अम्मी और अयाज़ सर के बीच एक रिश्ता सांस ले रहा है। एक ऐसे रिश्ते का नाज़ुक धागा जिसके दो सिरे, दो ऐसे लोगों ने थाम रखे थे जिन्हें एक दूसरे की ज़रूरत थी... - सुनिए जमशेद क़मर सिद्दीकी की ज़बानी उनकी लिखी कहानी 'पाज़ेब' सिर्फ स्टोरीबॉक्स में