धरती पर हज़ार चीजें थीं काली और खूबसूरत | अनुपम सिंह
धरती पर हज़ार चीजें थीं
काली और खूबसूरत
उनके मुँह का स्वाद
मेरा ही रंग देख बिगड़ता था
वे मुझे अपने दरवाज़े से ऐसे पुकारते
जैसे किसी अनहोनी को पुकार रहे हों
उनके हज़ार मुहावरे मुँह चिढ़ाते थे
काली करतूतें काली दाल काला दिल
काले कारनामे
बिल्लियों के बहाने दी गई गालियाँ सुन
मैं ख़ुद को बिसूरती जाती थी
और अकेले में छिपकर रोती थी
पहली बार जब मेरे प्रेम की ख़बरें उड़ीं
तो माँ ओरहन लेकर गई
उन्होंने झिड़क दिया उसे
कि मेरे बेटे को यही मिली है प्रेम करने को
मुझे प्रेम में बदनाम होने से अधिक
यह बात खल गई थी
उन्होंने कच्ची पेंसिलों-सा
तोड़ दिया था मेरे प्रेम करने का पहला विश्वास
मैंने मन्नतें उस चौखट पर माँगी
जहाँ पहले ही नहीं था इंसाफ़
कई-कई फ़िल्मों के दृश्य
जिनमें फ़िल्माई गई थीं काली लड़कियाँ
सिर्फ़ मज़ाक बनाने के लिए
अभी भी भर आँख देख नहीं पाती हूँ
तस्वीर खिंचाती हूँ
तो बचपन की कोई बात अनमना कर जाती है।
सोचती हूँ
कितनी जल्दी बाहर निकल जाऊँ दृश्य से
काला कपड़ा तो ज़िद में पहना था
हाथ जोड़ लेते पिता
बिटिया! मत पहना करो काली कमीज़
वैसे तो काजल और बिंदी यही दो श्रृंगार प्रिय थे
अब लगता है कि काजल भी ज़िद का ही भरा है
उनको कई बार यह कहते सुना था
कि काजल फबता नहीं तुम पर
देवी-देवताओं और सज्जनों ने मिलकर
कई बार तोड़ा मुझे
मैं थी उस टूटे पत्ते-सी
जिससे जड़ें फूटती हैं।