जिस माला को अपनी माँ से बेहद नफरत थी उसी माला को आज माँ से प्यार हो गया था। एक समय था जब माँ की शेरनी जैसी आँखें हर-क्षण, हर-पल उसकी निगरानी किया करती थी। माँ की छत्र-छाया में निर्बाध घूमती-फिरती उसने कब बचपन की दहलीज पार करती जवानी मे कदम रख दिया, पता ही नहीं चला। समझदारी-नासमझी के बीच, बचपन व यौवन के बीच उससे ऐसा अपराध हो गया जिसे वह समझ ही नहीं पाई। अपने ही हाथों अपने पिता का वध करके वह ऐसे खड़ी थी मानों उसने कुछ किया ही नहीं हो।