साधना पञ्चकं ज्ञान यज्ञ के 37वें दिन पूज्य स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी महाराज ने 36वें सोपान की भूमिका एवं रहस्य पर प्रकाश डाला। इसमें भगवान् शंकराचार्यजी कहते हैं की "जगदिदं तदबाधितं दृश्यतां" - अर्थात, इस दृष्ट जगत को बाधित होते हुए देखो। इससे पहले पिछले सोपान में अपनी पूर्ण-आत्मा को अत्यंत स्पष्टता से अपरोक्षतः देखने की बात कही थी। अब कह रहे हैं, की इसी ज्ञान के फलस्वरुप अपने से पृथक पूरे जगत के स्वतंत्र और पृथक अस्तित्व के अभाव को देखो। जब सृष्टि होती है तब केवल ईश्वरीय माया से विविध रूपों ही अभिव्यक्त हो जाती है, इन्ही विविध रूपों को हम लोग कुछ न कुछ नाम दे देते हैं - बस यह नाम-रूपात्मक प्रस्तुति ही सृष्टि है। प्रलय में ये अभिव्यक्त नाम और रूप ही मात्र लीन हो जाते हैं। आत्मा की पूर्णता देखने की प्रक्रिया में नाम-रूपों के पृथक अस्तित्व के अभाव को भी देखना अत्यंत आवश्यक होता है। जब जगत का अलग अस्तित्व नहीं है, तभी तो आत्मा पूर्ण और अद्वतीय हो सकती है। यह ही इस सोपान में कहा जा रहा है।