Jain Chaityalaya Vandana जैन चैत्यालय वंदना ★
कृत्याकृत्रिम - चारु- चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी - गतान्।
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान्॥
सद्गंधाक्षत- पुष्प-दाम-चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैर् ।
द्रव्यैनरमुखैर्यजामि सततं दुष्कर्मणां शांतये ॥१॥
अर्थ- तीनों लोकों संबंधी सुन्दर कृत्रिम ( मनुष्य, देव द्वारा निर्मित) व अकृत्रिम (अनादिनिधन - जो किसी के द्वारा बनाये नहीं हैं ) चैत्यालयों ( मंदिरों) को तथा भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, कल्पवासी देवों के भवनों, विमानों में स्थित अकृत्रिम चैत्यालयों को नमस्कार कर दुष्ट कर्मों की शांति के लिए पवित्र जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप तथा फल के द्वारा उनकी पूजा करता हूँ।
वर्षान्तर-पर्वतेषु वर्षेषु नंदीश्वरे यानि मंदरेषु ।
यावंति चैत्यायतनानि लोके सर्वाणि वंदे जिनपुंगवानाम् ॥२॥
अर्थ- जम्बूद्वीपवर्ती भरत, हेमवत आदि क्षेत्रों में घातक द्वीप एवं पुष्करार्द्ध - द्वीप - संबंधी क्षेत्रों में सर्व कुलाचलों, पंच- मेरु संबंधी, नंदीश्वर आदि समस्त द्वीप चैत्यालयों में स्थित लोक की समस्त जिन - प्रतिमाओं की वंदना करता हूँ।
अवनि-तल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणाम्।
वन-भवन-गतानां दिव्य-वैमानिकानाम्॥
इह मनुज-कृतानां देवराजार्चितानाम्।
जिनवर - निलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥३॥
अर्थ- पृथ्वी के नीचे ( पाताल में) व्यन्तर देवों के, (ज्योतिष देवों के ), वनवासी देवों के भवनों में एवं ( कल्पवासी देवों के) दिव्य - विमानों में स्थित कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयों तथा इस मध्यलोक में मनुष्यों द्वारा बनाये गये, इन्द्रों द्वारा पूजित चैत्यालयों का भावपूर्वक स्मरण करता हूँ।
जंबू - धातकि- पुष्करार्द्ध-वसुधा क्षेत्रत्रये ये भवाः । चन्द्राभोज - शिखंडि-कण्ठ-कनक प्रावृड्ङ्घनाभा जिनाः ॥
सम्यग्ज्ञान - चरित्र - लक्षण - धरा दग्धाष्टकर्मेन्धनाः । भूतानागत- वर्तमान-समये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥४॥
अर्थ- जम्बूद्वीप, धातकीद्वीप, और पुष्करार्द्ध - इन अढ़ाई द्वीपों के भरत, ऐरावत और विदेह - इन तीन क्षेत्रों में, चन्द्रमा के समान श्वेत, कमल के समान लाल, मोर के कंठ के समान नीले तथा स्वर्ण के समान पीले रंग के, पन्ना के समान हरे, और मेघ के समान कृष्णवर्णवाले, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के धारी और अष्टकर्मरूपी ईंधन को जला चुके भूतकालीन, भविष्यकालीन और वर्तमान-कालीन जितने तीर्थंकर हैं, उन सबको नमस्कार है।
श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजत - गिरिवरे शाल्मलौ जंबूवृक्षे । वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकर - रुचके कुंडले मानुषांके ॥ इष्वाकारे ऽञ्जनाद्रौ दधि - मुख-शिखरे व्यन्तरे स्वर्गलोके ।
ज्योतिर्लोकेऽभिवंदे भवन - महितले यानि चैत्यालयानि ॥५॥
अर्थ- शोभा संयुक्त सुमेरु पर्वतों पर, कुलाचल पर्वतों पर, विजयार्द्ध पर्वतों पर, शाल्मली और जम्बूवृक्ष पर, वक्षार पर्वतों पर, चैत्यवृक्षों पर, रतिकर पर्वतों पर, रुचिकगिर पर्वत पर, कुण्डलगिर पर्वत पर, मानुषोत्तर पर्वत पर, इष्वाकारगिरि पर्वतों पर अंजनगिर पर्वतों पर, दधिमुख पर्वतों पर, व्यन्तर, वै. मानिक, ज्योतिष, भवनवासी लोकों में, पृथ्वी के नीचे ( अधोलोक में ) जितने चैत्यालय हैं, उन सबको नमस्कार करता हूँ।
द्वौ कुंदेंदु - तुषार- हार-धवलौ द्वाविंद्रनील प्रभौ ।
द्वौ बंधूक - सम-प्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगु प्रभौ ॥
शेषाः षोडश जन्म - मृत्यु - रहिताः संतप्त - हेम-प्रभाः ।
ते संज्ञान - दिवाकराः सुरनुताः सिद्धिं प्रयच्छंतु नः ॥६॥
ॐ ह्रीं श्रीकृत्रिमाकृत्रिम - चैत्यालय - सम्बन्धि - चतुर्विंशतिजिनबिम्बेभ्योऽर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।
अर्थ- दो (चंद्रप्रभ और पुष्पदंत) कुंद पुष्प, चन्द्रमा, बर्फ जैसे हीरों के हार के समान श्वेतवर्ण के, दो ( मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथ) इन्द्रनील वर्ण के, दो (पद्मप्रभ तथा वासुपूज्य) बन्धूकपुष्प के समान लाल, एवं दो ( सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ ) प्रियंगु मणि (पन्ना) के समान हरितवर्ण, एवं तपे हुए स्वर्ण के समान वर्णवाले शेष सोलह; ऐसे जन्ममरण से रहित, सद्ज्ञान - सूर्य, देव- वन्दित ( चौबीसों) तीर्थंकर हमें मुक्ति प्रदान करें ।।