1936 में लिखित कहानी ‘कफन‘ में प्रेमचंद ने घीसू और माधव व उन जैसे अनगिनत लोगों की दुर्गति के कारण और मनुष्य के प्रत्यक्ष दुश्मन के रूप में ‘भूख‘ को प्रतीकवत प्रस्तुत किया है। इस कहानी के केंद्र में वह नृशंस भूख ही है जिसे पराजित करना घीसू और माधव के बस में नहीं है। वरन् इसके विपरीत इस भूख के सामने जीवन की समस्त जरूरतें पराजित होकर गौण हो गई हैं। भीष्म साहनी ने भी माना है कि गरीब की दुनिया में सब कुछ गौण है, प्रसूति में चिल्लाने और अंत में दम तोड़ जाने वाली पत्नी गौण है, पिता-पुत्र और पति-पत्नी का रिश्ता भी गौण है, भुने हुए दो आलू सबसे अधिक महत्व रखते हैं। ...विचारणीय तथ्य यह है कि यह केवल घीसू और माधव की भूख की कहानी ही नहीं है वरन् समाज के उस हिस्से, उस वर्ग की व्यथा कथा है जो सदियों से निरंतर सामंती व जमींदारी शोषण की चक्की में पिस्ता चला आ रहा है। जिससे मजदूरी तो दिन भर कराई जाती है परंतु उचित मेहनताना नहीं दिया जाता है। वह किसान सालभर मेहनत करके फसल तो उग़ाता है परंतु वह फसल उसके घर तक पहुंच नहीं पाती है। तात्पर्य यह है कि यह चाहे कितना भी परिश्रम करें, कितना भी पसीना बहाऐं, इनके सपने कभी दो रोटी के बंदोबस्त से आगे नहीं बढ़ पाते। चारों तरफ से हो रहे इस शोषण ने इन लोगों की सोच, इनकी मानसिकता को इस कदर प्रभावित किया है कि ये लोग संवेदनाहीन, स्वकेंद्रित हो गए हैं। इनके लिए न रिश्ते कुछ मायने रखते हैं और न ही जीवन मूल्य। सिर्फ पेट भर खाना ही इनकी प्राथमिकता बन गया है।