पिछली कथा में हमने देखा कि कैसे गंगा माता के पावन तट पर, एक विनम्र नाविक केवट ने अपनी सच्ची श्रद्धा से प्रभु के चरणों को छूने का सौभाग्य पाया। नदी के उस पार उतरते ही जैसे वन नहीं, एक नया युग आरंभ हुआ था। केवट का प्रेम, उसकी विनम्रता और उसका बाल-सुलभ विश्वास, इन सबने रामकथा को भक्ति के उस शिखर पर पहुँचा दिया, जहाँ एक साधारण नाविक भी देवताओं से बढ़कर हो जाता है।
आज की कथा वहीं से आगे बढ़ती है। गंगा के पार उतरकर राम, सीता और लक्ष्मण वन की ओर चल पड़े हैं। यात्रा के बीच वे प्रयागराज पहुँचे, जहाँ संगम माता उन्हें अपने आंचल में समेट लेती है, और जहाँ ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि और साधक उनके दर्शन को दौड़ पड़ते हैं। भरद्वाज मुनि का आश्रम, उनका वात्सल्य, उनकी दृष्टि, और उनका आशीष, इन सबने इस यात्रा को आध्यात्मिकता के नए ऊंचाई पर पहुँचा दिया। यहीं से चित्रकूट का मार्ग खुला, और यहीं पहली बार वनवास की थकान थोड़ी हल्की हुई। उसके बाद राम, सीता और लक्ष्मण महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश करते हैं।यहीं होगा वह दिव्य मिलन, जिसमें राम अपने हृदय की कथा खोलेंगे, लक्ष्मण अपनी विनम्रता अर्पित करेंगे, और सीता, संकोच, धैर्य और मातृगौरव के साथ, महर्षि वाल्मीकि से आशीष माँगेगी। और महर्षि, उनके सिर पर हाथ रखकर यह वचन देंगे कि जहाँ- जहाँ रामकथा चलेगी, जहाँ-जहाँ भक्त उनके चरणों को खोजेंगे, वहाँ-वहाँ वे सीता की रक्षा, राम के धर्म और लक्ष्मण की सेवा-भावना के सदा साक्षी बने रहेंगे। तो आइए, आज की कथा आरंभ करते हैं, उस पावन क्षण से, जहाँ तीन पथिक धीरे-धीरे आश्रम में प्रवेश करते हैं, और महर्षि वाल्मीकि विजय की नहीं—धर्म, प्रेम और सत्य की सबसे महान कथा का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ते हैं।
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