पिछली कथा में, हमने सुना कि कैसे राम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ मिथिला पहुँचे, जहाँ उनका प्रथम परिचय हुआ राजा जनक से—एक ऐसे राजर्षि, जो ज्ञान, विवेक और धर्म के प्रतीक माने जाते हैं। हमने यह भी जाना कि किस प्रकार राजा जनक को देवी सीता प्राप्त हुईं, और कैसे वह जनकपुर की आत्मा बन गईं। राम और लक्ष्मण ने महर्षि से राजा जनक की कथा सुनी, और साथ ही अपने गुरु विश्वामित्र की भी वह कथा जानी जो उन्हें एक महान तपस्वी और ब्रह्मर्षि के पद तक ले गई। और फिर घटा वह क्षण, जब राम ने भगवान शिव के धनुष को न केवल उठाया, बल्कि उसे खींचते ही भेद दिया। पूरी सभा स्तब्ध रह गई। राजा जनक ने उस क्षण को युगों की प्रतीक्षा का अंत कहा, और घोषणा की कि अब सीता का पाणिग्रहण उन्हीं राम से होगा।
आज की कथा में, हम प्रवेश करेंगे उस मंगलमयी क्षण में, जब राजा दशरथ को जनकपुर से यह शुभ समाचार प्राप्त होता है कि राम ने शिवधनुष को भेद दिया है, और राजा जनक ने सीता के विवाह हेतु प्रस्ताव भेजा है। वे महर्षि वशिष्ठ, रानियों और पुत्रों से परामर्श करते हैं, तब उन्हें यह अनुभव होता है कि यह सब एक ईश्वरीय योजना का ही हिस्सा है। इस अवसर पर केवल राम और सीता का मिलन नहीं हो रहा—बल्कि उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के लिए भी विवाह प्रस्ताव सामने आता है। परिवार के बीच आत्मीय संवाद होता है—रानियाँ इस विचार से प्रसन्न होती हैं, पुत्र इसे सम्मान मानते हैं, और गुरुजन इसे धर्मसम्मत कहते हैं। तो आइए, साथ चलें उस पावन प्रसंग की ओर, जहाँ राम और सीता केवल इतिहास नहीं रचते—बल्कि युगों तक मानवता को यह सिखाते हैं कि जब प्रेम, धर्म और निष्ठा एक साथ चलते हैं, तो सृष्टि में संतुलन और शांति की स्थापना अवश्य होती है।
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