पिछली कथा में, हमने देखा कि कैसे गंगा तट पर राम, सीता और लक्ष्मण ने धर्म के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ने का संकल्प लिया। राम ने सुमंत्र से कहा कि वे अयोध्या लौट जाएँ और वहाँ माता-पिता को सांत्वना दें, क्योंकि धर्म का पालन ही सच्ची सेवा है। अंततः सुमंत्र ने अश्रुपूरित नेत्रों से राम, सीता और लक्ष्मण को प्रणाम किया और भारी हृदय से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया।
आज की कथा हमें उस क्षण में ले जाती है, जब सुमंत्र का रिक्त रथ अयोध्या में प्रवेश करता है। नगर की गलियों में सन्नाटा है, आकाश मानो मौन विलाप कर रहा है। राजा दशरथ अब राजा नहीं रहे वे केवल एक पिता हैं, जो हर साँस के साथ “राम… राम…” पुकारते हैं। आज, इस कथा में, हम केवल राजा दशरथ के वर्तमान को नहीं देखेंगे, हम उनके अतीत में भी उतरेंगे। वहा, जहाँ एक युवा धनुर्धर दशरथ ने अनजाने में एक बालक, श्रवण कुमार को अपने बाण से घायल कर दिया था। हम सुनेंगे वह हृदय-विदारक घटना,
जब उस बालक के अंधे माता-पिता ने विलाप करते हुए राजा दशरथ को शाप दिया था। वह शाप अब फल दे चुका है। राम का वनगमन ही राजा दशरथ का मृत्यु-दर्शन है। अयोध्या में आज केवल दो आवाज़ें हैं, एक, सुमंत्र की करुण कथा जो सबको राम का समाचार देती है। और दूसरा, राजा दशरथ की टूटती साँसें, जो अपने अंतिम क्षणों में राम, सीता और लक्ष्मण का जाप करते हुए, श्रवण कुमार के शाप को सत्य बना रही हैं। तो आइए, चलें हमारे साथ इस करुण प्रसंग में, जहाँ धर्म और भाग्य का संगम, विरह और अपराध का प्रतिफल, और प्रेम और पश्चात्ताप की पराकाष्ठा एक पिता के हृदय में समा जाती है।
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