Tantrokt Navagrah Kavach तंत्रोक्त नवग्रह कवच ★
मानव शरीर में ही सभी ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं लोक इत्यादि स्थित हैं और ग्रह चिकित्सा को पूर्ण रूप से समझने के पूर्व यह जान लेना रोचक होगा कि शरीर के किस अंग में कौन सा ग्रह, राशि, नक्षत्र स्थित है। इस प्रकार इनके समान्वित प्रभाव से शरीर के विभिन्न अंगों में उत्पन्न होने वाले रोगों को भी जाना जा सकता है, शरीर की क्रियाओं को तीव्रमान भी किया जा सकता है, उदाहरण स्वरूप सूर्य की स्थिति नाभि चक्र में, चन्द्रमा बिन्दु चक्र में, मंगल नेत्र में, बुध हृदय में, गुरु उदर में, शुक्र वीर्य में, शनि नाभि में, राहु मुख में एवं केतु का स्थान दोनों हाथ एवं पैरों में, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार माना गया है। इसी प्रकार सभी 12 राशियों एवं नक्षत्रों की भी शरीर में स्थिति निर्धारित की गई है।
गोचर में जब ग्रह नक्षत्र अपना प्रभाव दिखाते हैं तो शरीर के उस अंग विशेष पर प्रभाव पड़ता ही है। व्यक्ति अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में किसी न किसी ग्रह से ग्रसित अथवा न्यूनाधिक रूप से पीड़ित होता ही है और फिर वह निर्णय नहीं कर पाता कि वह किस ग्रह की शांति करे अथवा किस ग्रह की उपासना करे, अपने आप को निरोग करें और फिर ऐसे में ज्योतिषियों के पास चक्कर काटने की बाध्यता हो जाती है।
इसका एक सरल उपाय तंत्रोक्त नवग्रह निवारण प्रयोग है, जिसके द्वारा व्यक्ति, नव ग्रहों की संयुक्त पूजन कर अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से अनुकूलता प्राप्त कर सकता है और उसे एक-एक ग्रह की अलग-अलग पूजा विधान समझाने की आवश्यकता नहीं रहती। इस नवग्रह कवच का पाठ करने से दरिद्रता दूर होती है, अशुभ ग्रहों की बाधा शांत होने से शुभ ग्रह अपना प्रभाव देते हैं, जिससे विपत्तियों का नाश होता है और समस्त सुखों की प्राप्ति होती है।
ॐ अस्य जगन्मंगल-कारक ग्रह- कवचस्य श्री भैरव ऋषि: अनुष्टुप छन्द: श्री सूर्यादि-ग्रहा: देवता: सर्व-कामार्थ-संसिद्धयै पठै विनियोग:।
तंत्रोक्त नवग्रह कवच:
ॐ ह्रीं ह्रीं सौ:में शिर: पातु श्रीसूर्य ग्रह-पति: ।
ॐ घौं सौं औं मे मुखं पातु श्री चन्द्रो ग्रहराजक: ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रां स: करौ पातु ग्रह-सेनापति: कुज: पायादथ ।
ॐ ह्रौं ह्रौं सौं: पदौज्ञो नृपबालक: ।
ॐ त्रौं त्रौं त्रौं स: कटिं पातु पातुपायादमर- पूजित: ।
ॐ ह्रों ह्रीं सौ: दैत्य-पूज्यो हृदयं परिरक्षतु ।
ॐ शौं शौं स: पातु नाभिं में ग्रह प्रेष्यं शनैश्चर: ।
ॐ छौं छौं स: कण्ठ देशं श्री राहुदेव मर्दक: ।
ॐ फौं फां फौं स: शिखो पातु सर्वांगमभितोवतु ।
ग्रहाशतचैते भोग देहा नित्यास्तु स्फुटित- ग्रहा: ।
एतदशांश – सम्भूता: पान्तु नित्यं तु दुर्जनात् ।
अक्षयं कवचं पुण्यं सूर्यादि-ग्रह-देवतम् ।
पठेद्वा पाठयेद् वापि धारयेद् यो जन: शुचि: ।
स सिद्धिं प्रप्युयादिष्टां दुर्लभां त्रिदशैसतु याम् ।
तव स्नेहवशादुक्तं जगमंगल कारकम् ।
ग्रहयन्त्रान्वितंकृत्वाभीष्टमक्षयमाप्नुयात ।
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नवग्रह कवच सम्पूर्णं