क्यों डरती है सरकारे आज़ादी से,
आज़ादी के नारों से,
क्यों बने रहने देना चाहती हैं,
हमे किसी का गुलाम,
गुलाम,
किसी साम्राज्य का,
किसी सोच का,
किसी समझ या किसी विश्वास का,
कभी धर्म के नाम पर,
कभी देश के नाम पर,
या कभी वायरस के?
क्यों आखिर क्यों,
क्यों डरती है
ये आवाज़ों से,
उन आवाज़ों से,
जो किसी किताब से निकलति है,
वो आवाजें जो,
किसी सवाल से उठती है,
वो आवाजें जो किसी स्थापित पर,
शक़् करता है,
पर शक तो करना पड़ेगा न!
जब झाँका गैलीलियो ने आकाश में,
बोला धरती गोल है,
चक्कर काटती सूरज का,
ज़हर पीना पड़ा उसको,
विरुद्ध मान्यता के बोलने पर!
जमाना बदल रहा है,
और सोच विचार भी,
पर डर वहीं है,
उसी जगह
दृढ़,
सत्ता जाने का डर,
मन मानी का डर,
किसी नई सोच,
किसी नई खोज का डर,
कहीं मेरे हाथ जो है,
वो फिसल न जाये,
उसका डर,
डर हर एक सवाल से,
डर हर उस चीज़ से जो सवाल पैदा करती हो,
हर वो साँस,
हर वो सोच,
हर वो निगाह,
जो सवाल पैदा करती हो,