*यह समझना मूर्खता है कि कर्म न करने से कर्मबन्धन से मुक्ति मिल जायेगी।
*यह समझना भी मूर्खता है कि केवल संन्यास ले लेने से कर्मबन्धन से मुक्ति मिल जायेगी।
*जब तक राग-द्वेष का त्याग न हो, जब तक विषयों में आसक्ति का त्याग न हो, जब तक सिद्धि-असिद्धि में समत्वभाव स्थिर न हो, जब तक आत्मस्वरूप का ज्ञान न हो जाय, तब तक कर्मबन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता।
*कोई भी प्राणी किसी भी काल में एक क्षण के लिये भी कर्म किये विना नहीं रह सकता। प्रकृतिजन्य गुण सभी को विवश करके कर्म करा लेते हैं।
*कर्मेन्द्रियों को रोककर अर्थात् बाहर से त्यागी बनना और मन से विषयों का चिन्तन करना मूर्खता और पाखण्ड है।
*कर्मत्याग का पाखण्ड करने वाले की अपेक्षा अनासक्त भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है। ध्यातव्य है कि यहां तत्वज्ञानी संन्यासी से तुलना नहीं की जा रही है।
*ज्ञानियों का व्यवहार भिन्न हो सकता है, किन्तु ज्ञान एक ही होता है। व्यवहार में वसिष्ठ जी कर्मकाण्डी थे, श्रीराम और जनक राजा थे, श्रीकृष्ण भोगी थे, शुकदेव जी त्यागी थे, किन्तु सबका ज्ञान एक समान था -
"कृष्णो भोगी शुकस्त्यागी राजानौ जनकराघवौ।
वसिष्ठः कर्मकर्ता च पञ्चैते ज्ञानिनः समाः।।"
* कर्म करना रजोगुण और न करना तमोगुण है। तमोगुण की अपेक्षा रजोगुण का आश्रय लेना श्रेयस्कर है। ज्ञान सत्वगुण है। केवल आत्मज्ञानी संन्यासी के लिये कर्मों का सर्वथा त्याग बताया गया है - "कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हें"।