*कश्यप और दनु का पुत्र विप्रचित्ति, विप्रचित्तिका पुत्र दम्भ। दम्भका शंखचूड़ । यह सभी बहुत धर्मात्मा थे। इनका केवल देवताओं से कौटुम्बिक वैर था। शंखचूड़ पूर्वजन्म में गोलोक में श्रीकृष्णका पार्षद सुदामा था।
*शंखचूड़ ने अपने पिता की भांति पुष्कर में तपस्या किया और ब्रह्माजी से वरदान और श्रीकृष्ण का कवच पाकर ब्रह्माजी की ही आज्ञा से बदरीनाथ में तप कर रही धर्मध्वजकी कन्या तुलसी से विवाह किया।
*दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने शंखचूड़ का राज्याभिषेक किया। शंखचूड़ ने देवताओं को जीत लिया।
*देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् विष्णु ने कहा कि शंखचूड़ का वध भगवान् शंकर के त्रिशूल से निर्धारित है।
*ब्रह्मा इत्यादि को लेकर भगवान् विष्णु सोलह द्वारों वाले शिवलोक में गये । पलमशिव ने कहा कि आप लोग कैलास पर जाकर हमारे ही अंगरुप हमारे अधीन रहने वाले कैलासवासी शंकर के पास जाइये, वह शंखचूड़ का वध करेंगे।
*शंखचूड़ और देवताओं के युद्ध में भगवती काली देवताओं की ओर से युद्ध कर रही थीं तब आकाशवाणी हुयी कि शंखचूड़ आपके द्वारा अवध्य है। तदुपरान्त भगवान् शंकर शंखचूड़ से युद्ध करने लगे।
*आकाशवाणी ने शंकरजी को यह कहते हुये त्रिशूल चलाने से रोक दिया कि जब तक शंखचूड़ के गले में श्रीकृष्ण का कवच है और जब तक इसकी पतिव्रता स्त्रीका सतीत्व है, तब तक यह न तो बूढा़ होगा न मरेगा।
*शंकरजी स्मरण करने पर भगवान् विष्णु ब्राह्मणवेश में आये और शंखचूड़ से दान का वचन ले लिये। वचन लेने के बाद उसका दिव्य कृष्णकवच मांग लिये। तत्पश्चात् शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के पास जाकर उसका सतीत्व भंग कर दिये।
*तत्पश्चात् शंकरजी ने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया।
*रतिकाल में तुलसी को शंखचूड़ की पहले की क्रियाओं और हावभाव से अंतर अनुभव हुआ तो उसे शंका हुयी। उसके पूंछने और शाप का भय देने पर विष्णु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुये। तब तुलसी ने भगवान् विष्णु को पाषाण होने का शाप दिया।
*तदुपरान्त शंकरजी वहां प्रकट हुये और तुलसी को समझाते हुये कहे कि तुम इस शरीर को त्यागकर दिव्य लक्ष्मी की भांति हो जाओ और विष्णु की नित्य सहचरी बनो। तुम्हारी यह छोडी़ हुयी काया महापुण्यदायिनी गण्डकी नदी के रूप में विख्यात होगी। पुनश्च, तुम मेरे वरदान से देवपूजन के प्रधान साधन सभी बृक्षों की अधिष्ठात्री देवी तुलसीवृक्ष के रूप में उत्पन्न होगी। अर्थात् भगवान् शंकर ने शंखचूड़ की पत्नी तुलसी को तीन रूप में होने का वरदान दिया - 1. वैकुण्ठलोक में विष्णु की नित्यसंगिनी, 2. भारतवर्ष में महापुण्यदायिनी गण्डकी नदी, 3. तुलसी बृक्ष।
*भगवान् शंकर ने यह भी कहा कि यह विष्णु भी तुम्हारे शाप से उसी गण्डकी के किनारे पाषाणरूप में स्थित रहेंगे। वहां तीखे दांत वाले करोडो़ं कीडे़ उन शिलाओं को काटकर उनके छिद्र में विष्णु के चक्र का निर्माण करेंगे। उन कीटों द्वारा छिद्र की गयी वे शिलायें अत्यंत पुण्यप्रद होंगी। उनमें बने चक्रों के भेद से उनके लक्ष्मीनारायण इत्यादि भिन्न भिन्न नाम होंगे। भगवान् शंकर ने कहा कि,
*उस शालग्रामशिला से जो लोग तुलसीबृक्ष (या तुलसीपत्र) का संयोग करायेंगे उन्हे अत्यंत पुण्य प्राप्त होगा,
* जो शालग्राम से तुलसीपत्र को अलग करेगा उसका अगले जन्म में स्त्री से वियोग होगा ,
*जो शंख से तुलसीपत्र का विच्छेद करेगा वय सात जन्म तक भार्याहीन और रोगी रहेगा ,
*जो शालग्राम, शंख और तुलसी को एक साथ रखेगा, वह भगवान् विष्णु का प्रिय होगा।
तदुपरान्त तत्काल ही तुलसी वह शरीर छोड़कर दिव्यशरीर प्राप्त की और उसका पार्थिव शरीर गण्डकी नदी बन गया और भगवान् विष्णु भी उसके तट पर शालग्राम शिला के रूप में स्थित हो गये।
*गण्डकी में जो शालग्राम शिला जल में पडी़ रहती है, वही पुण्यदायक होती है। स्थल में रहने वाली शिला अनिष्टकर होती है।
आख्यानमिदमाख्यातं विष्णुमाहात्म्यमिश्रितम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।