इन्द्रियों की फांस से निकलना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। पिछले एपिसोड में
प्रश्न था कि सब लोग भगवान् की आज्ञा (शास्त्र) का पालन क्यों नहीं करते और भगवान् स्वयं अपनी आज्ञाका पालन क्यों नहीं करा पाते ? इसके उत्तर में 33वें श्लोक में कहे कि मूढ और ज्ञानी सभी अपने अपने स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार कर्म करते हैं, इसमें शास्त्र इत्यादि का वश नहीं है। इस पर प्रतिप्रश्न उठता है कि यदि सभी मनुष्य पूर्व जन्मों के संस्कारवश प्रकृति के वशमें होकर ही शुभाशुभ कर्म करते हैं, न कि शास्त्रों के अनुसार तो शास्त्रों की क्या आवश्यकता?
इसका स्पष्टीकरण और समाधान 34वें और 35वें श्लोक में देते हैं -
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
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