एपिसोड 650. श्रीरामचरित मानस, मनु-सतरूपा को वरदान
*"विस्ववास प्रगटे भगवाना"
और
"होइहौं प्रगट निकेत तुम्हारे"
की व्याख्या -
मनु-सतरूपा ने वासुदेव मंत्र का जप करते हुये तपस्या किया। वासुदेव का अर्थ है जिसका सर्वत्र वास है और जिसमें सब वास करते हैं, जो सबका अधिष्ठान है , जो सबमें है और जिसमें सबकुछ है -
"वासनाद् वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयं।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोस्तु ते।"
वे सर्वव्यापी हैं , अतः वैकुण्ठ, कैलास, सत्यलोक इत्यादि जैसे किसी लोक से चलकर नहीं आये। जहां थे, वहीं अप्रकट से प्रकट हो गये।
जब मनुष्य रूपमें अवतार धारण किये तब भी पाञ्चभौतिक शरीर में बंधकर गर्भसे जन्म नहीं लिये, वहां भी इच्छाधारी अपाञ्चभौतिक शरीर के रूप में प्रकट हुये।
मनु सतरूपा को वरदान दिये थे -
"इच्छामय नरबेस संवारे।
होइहौं प्रगट निकेत तुम्हारे।।"
इसलिये ,
"भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी"।
प्रकट हुये थे, सामान्य मनुष्यों की भांति जन्म नहीं लिये थे।
इससे श्रीराम को भगवान् न कहकर महापुरुष के कहने वालों के मत का भी खण्डन हो जाता है।
मनु सतरूपा के समक्ष किस रूपमें प्रकट हुये ? सीता-राम के रूप में। क्यों? क्योंकि इसी रूप की उपासना शङ्करजी और काकभुसुण्डि जी करते हैं और मनु-सतरूपा ने अव्यक्त आकाशवाणी से निवेदन किया कि उसी रूप में सम्मुख आइये जिस रूप का ध्यान शंकरजी और भुसुण्डिजी करते हैं -
जो सरूप बस सिव मन मांही।
जेहि कालन मुनि जतन कराहीं।।
जो भुसुण्डि मन मानस हंसा।
सगुन अगुन जेहिं निगम प्रसंसा।।
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन।
कृपा करहु प्रनतारति मोचन।।
.....
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना।
बिस्वबास प्रगटे भगवाना ।।"
साथमें सीताजी भी थीं। सीताजी आदिशक्ति हैं। अनन्त लक्ष्मी, अनन्त काली, अनन्त सरस्वती उन आदिशक्ति जगदम्बा सीता जी से उत्पन्न होती हैं -
" बामभाग सोभति अनुकूला।
आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।।
जासु अंस उपजहिं गुनखानी।
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।।
भृकुटि बिलास जासु जग होई।
राम वाम दिसि सीता सोई।।"
मनु जी ने वरदान मांगा कि मेरे आपके समान ही पुत्र हो। भगवान् के समान तो कोई है नहीं और न हो सकता है अतः कहे कि अपने समान मैं कहां खोजने जाऊं , मैं ही आकर आपका पुत्र हो जाउंगा -
"आपु सरिस खोजौं कहं जाई।
नृप तव तनय होब मैं आई।।"
यहां आने का अर्थ प्रकट होने से है।
पुनः कहते हैं -
"इच्छामय नरबेस संवारे।
होइहौं प्रगट निकेत तुम्हारे।।"
सतरूपा ने अतिरिक्त वरदान मांगा कि मेरा विवेक बना रहे , आपको पुत्ररूप में पाकर भी मैं इस बात को भूलूँ नहीं कि आप भगवान् हैं। तब मनु महाराज ने इसके विपरीत अतिरिक्त वरदान मांगा। वह मांगे कि आपको पुत्ररूप में पाकर मेरा विवेक नष्ट हो जाय और मैं आपको केवल पुत्ररूप में जानूं और जैसे मछली जल के विना और सर्प मणि के विना नहीं रह सकता उसी प्रकार मैं आपके विना मैं जीवित न रह सकूँ।